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प्रश्न २७: सम्यग्दृष्टि को जानने-पहिचानने के चिन्ह बताइए। उत्तर : यद्यपि सम्यक्त्व मात्र की अपेक्षा छद्मस्थ का सम्यक्त्व सिद्धों के सम्यक्त्व के समान ही अत्यन्त स्पष्टरूप में व्यक्त होता है; तथापि अमूर्तिक आत्मा का अमूर्तिक परिणमन होने से दर्शनमोह के उपशमादि विशिष्ट आत्म-स्वरूपमय तत्त्वार्थ-श्रद्धान का स्वसंवेदन से निश्चय कर पाना ही जब असम्भव है; तब फिर अन्य परोक्ष-ज्ञानिओं द्वारा उसे जाननापहिचानना कैसे सम्भव हो सकता है ?' ऐसा श्लोकवार्तिक, पंचाध्यायी
आदि ग्रन्थों में बताया गया है; तथापि उसके अभिव्यंजक, ज्ञापक कुछ चिन्ह-विशेषों द्वारा वह स्व-पर के ज्ञान-गोचर हो जाता है।
वे कुछ चिन्ह इसप्रकार हैं - १. कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कार्तिकेयस्वामी सम्यक्त्व को पहिचानने के चिंह बताते हुए गाथा ३१५ में जो लिखते हैं, उसका हिंदीसार इसप्रकार है... "उत्तम गुणों को ग्रहण करने में तत्पर, उत्तम साधुओं की विनय से सहित जो साधर्मी जनों से अनुराग करता है; वह उत्कृष्ट सम्यग्दृष्टि है।" २. श्लोकवार्तिककार विद्यानंदस्वामी के अनुसार प्रशम आदि सम्यग्दर्शन के कार्य या फल होने से, उनसे सम्यक्त्व की पहिचान हो सकती है। कषायों की मंदतारूप प्रशम, संसार-शरीर-भोगों से उदास हो धर्म में अति उत्साहरूप संवेग, प्राणिमात्र के प्रति दयारूप अनुकम्पा और जिनेन्द्र कथित सभी पदार्थों की सत्ता आदि के प्रति पूर्ण निश्शंक श्रद्धा आदि रूप आस्तिक्य - इन चार गुणों से अपने और दूसरों के सम्यक्त्व को जाननापहिचानना सम्भव है। ३. महापुराण में आचार्य जिनसेन संवेग, प्रशम, स्थिरता, अमूढ़ता, गर्व नहीं करना, आस्तिक्य और अनुकम्पा' - इन सात भावनाओं से सम्यक्त्व को पहिचानने का उल्लेख करते हैं। ४. मूलाराधना में आचार्य शिवार्य निःशंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना - इन आठ अंगों/गुणों से उसे पहिचानने का प्रतिपादन करते हैं।
- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/१२८