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________________ उत्तर :वास्तव में अविरत सम्यक्त्व के कोई भेद नहीं हैं; अविरत सम्यक्त्व तो सर्वत्र एक सा ही है। इसमें विद्यमान सम्यक्त्व के कर्म की अपेक्षा तीन भेद होते हैं। जिन्हें आचार्यश्री नेमिचंद्र-सिद्धान्त-चक्रवर्ती अपनी कृति गोम्मटसार जीवकाण्ड में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "सम्मत्तदेसघादिस्सुदयादो वेदगं हवे सम्म । चलमलिनमगाढं तं, णिच्चं कम्मक्खवणहेदु ॥२५॥ सत्तण्हं उवसमदो, उवसमसम्मो खया दुखइयो य। विदियकसायुदयादो, असंजदो होदि सम्मो य॥२६॥ सम्यक्त्व नामक देशघाति का उदय होने से अर्थात् मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी क्रोधादि चतुष्क के वर्तमान-कालीन सर्वघाति स्पर्धकों का उदयाभावी क्षय; उन्हीं के आगामी-कालीन उन्हीं स्पर्धकों का सदवस्थारूप उपशम और सम्यक्त्व-प्रकृति नामक देशघाति स्पर्धकों के उदय के काल में श्रद्धा गुण की मुख्यता से आत्मा के जो परिणाम होते हैं, वे वेदक या क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहलाते हैं। वे परिणाम चल, मलिन और अगाढ़ दोष युक्त होने पर भी सदा कर्म-क्षपण/कर्मों की निर्जरा के कारण होते हैं। (पूर्वोक्त) सात प्रकृतिओं के उपशमसे औपशमिक सम्यक्त्व और क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व होता है; परन्तु अप्रत्याख्यानावरण नामक दूसरी कषाय का उदय होने से इसमें असंयम होता रहता है।" __ इसप्रकार कर्म-सापेक्ष सम्यक्त्व की अपेक्षा इस गुणस्थान के तीन भेद हैं- १. अविरत औपशमिक सम्यक्त्व, २. अविरत क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और ३. अविरत क्षायिक सम्यक्त्व। ये तीनों ही सम्यक्त्व ४१ कर्म -प्रकृतिओं के निरोध में कारण हैं अर्थात् इनसे मिथ्यात्व आदि ४१ कर्म-प्रकृतिओं का बंध नहीं होता है; उनकी संवर-निर्जरा सतत विद्यमान रहती है ! यद्यपि इन तीनों में से किसी से भी सहित जीव इस चतुर्थ गुणस्थान में अविरत सम्यक्त्वी ही कहलाता है; तथापि इन तीनों सम्यक्त्वों में पारस्परिक कुछ अंतर भी है; जो इसप्रकार है - तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/१२६ -
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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