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स्वरूप-स्थिरता नहीं होने से संयम का अभाव होने के कारण यह अविरत दशा है। युगपत् इन अविरत और सम्यक्त्व - दोनों परिणामों से सहित जीव अविरत सम्यग्दृष्टि कहलाता है।
इसका सम्पूर्ण व्यक्त ज्ञान सम्यग्ज्ञान और चारित्र स्वरूपाचरण चारित्र का प्रारम्भिक रूप सम्यक्त्वाचरण चारित्र कहलाता है। यह सैनी पंचेन्द्रिय की यथायोग्य सभी दशाओं में रह सकता है ।
सम्यक्त्व की अपेक्षा इस गुणस्थान में औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्व में से एक जीव के कोई एक सम्यक्त्व रहता है।
द्रव्यसंग्रह ग्रन्थ गाथा १३ की टीका में ब्रम्हदेव सूरी ने इस चतुर्थ गुणस्थान का लक्षण बहुत मार्मिक पद्धति से स्पष्ट किया है; उसका सार इस प्रकार है - " अपना परमात्म- द्रव्य ही उपादेय है, इंद्रिय-सुख आदि परद्रव्य हेय हैं - इसप्रकार सर्वज्ञ-प्रणीत निश्चय - व्यवहार नयात्मक साध्यसाधक भाव को जो स्वीकार करता है; तथापि भूमि-रेखा आदि के समान क्रोध आदि दूसरी अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से, कोतवाल द्वारा मारने के लिए पकड़े गए चोर के समान आत्मनिंदा आदि सहित होता हुआ इंद्रिय-सुख का अनुभव करता है; वह चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि है । '
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अर्थात् आत्म-सुख को उपादेय मानने वाला यह विषय - सुख को हेय मानता होने पर भी उनसे विरत नहीं होने से अविरत सम्यग्दृष्टि है। इस अविरतपने में कारण अप्रत्याख्यानावरण कषाय है ।
इस अप्रत्याख्यानावरण कषाय की निमित्तता में होनेवाले अविरत भाव से अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभरूप मोहनीय की चार; मनुष्य रूप आयुष्क की एक; बज्रवृषभनाराच संहनन, औदारिक शरीर, औदारिक शरीर अंगोपांग, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वीरूप नामकर्म की पाँच - इसप्रकार कुल दश प्रकृतिओं का बंध होता है। यहाँ यह अविरत शब्द अंत्यदीपक है अर्थात यहाँ पर्यंत सभी दशाएँ अविरत ही हैं। प्रश्न २६ : कर्म की अपेक्षा अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान के भेद बताते हुए, उनमें पारस्परिक अंतर भी बताइए ।
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चतुर्दश गुणस्थान / १२५