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गमन
तीसरे सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान का गमनागमन
- औ. क्षायो. प्रमत्तसंयत से - औ. क्षायो. देशविरत से औ. क्षायो. अविरत से
चौथे अविरत में
सम्य.
तीसरे सम्यमथ्यात्व से
तीसरे सम्यग्मिथ्यात्व में
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आगमन
पहले मिथ्या. में
↑२८ प्रकृतिवाले सादि मिथ्या. से
भावों की विविधता से यह अनेक प्रकार का गमनागमन बन जाता है। प्रश्न २५ : चौथे अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान का स्वरूप स्पष्ट कीजिए । उत्तर : इस अविरत सम्यक्त्व नामक चौथे गुणस्थान का स्वरूप स्पष्ट करते हुए अपने गोम्मटसार जीवकाण्ड नामक ग्रन्थ में आचार्य श्री नेमिचंद्रसिद्धान्त-चक्रवर्ती लिखते हैं
" णो इंदियेसु विरदो, णो जीवे थावरे तसे वापि । जो सद्दहदि जिणुत्तं, सम्माइट्ठी अविरदो सो ॥ २९ ॥ इन्द्रियों के विषयों और स्थावर तथा त्रस जीवों की हिंसा से विरक्त नहीं होने पर भी जो जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहे गए तत्त्व आदि का श्रद्धान करता है; वह अविरत सम्यग्दृष्टि है । '
"
अप्रत्याख्यानावरणरूप चारित्रमोहनीय संबंधी सर्वघाति स्पर्धकों के उदय की निमित्तता में होनेवाली हिंसादि और इंद्रियविषयों में जीव की प्रवृत्ति को अविरति / असंयम कहते हैं। वह प्राणी - असंयम और इंद्रियअसंयम के भेद से मूल में दो प्रकार की है। पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक- ये पाँच प्रकार के एकेंद्रिय जीव पाँच स्थावरकायिक कहलाते हैं । दो इंद्रिय से लेकर सैनी पंचेंद्रिय पर्यंत के सभी संसारी जीव त्रसकायिक कहलाते हैं। इन स्थावरत्रस जीवों की हिंसा का प्रतिज्ञा पूर्वक त्याग नहीं होना, प्राणी असंयम है। मुख्यतया स्पर्शन इंद्रिय के हल्का, भारी, रूखा, चिकना, ठंडा, गर्म, कोमल और कठोर – इन आठ विषयों में; रसना इंद्रिय के खट्टा, मीठा, चतुर्दश गुणस्थान / १२३
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