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है। तत्पश्चात् मात्र तीसरे गुणस्थान में इसका उदय रहता है। २. इसमें मात्र देवदारु की लकड़ी के समान शक्तिवाले, अनंत बहुभाग के अनंतवें भाग प्रमाण सर्वघाति स्पर्धक ही हैं; अन्य स्पर्धक नहीं होते हैं। ३. मिथ्यात्व आदि अन्य सर्वघाति प्रकृतिओं के समान यह सम्यक्त्व का पूर्णतया घात या विराधना करने में समर्थ नहीं है। ४. इसके उदय में श्रद्धा गुण की मुख्यता से जीव की सम्यक्त्वमिथ्यात्वरूप जात्यंतर मिश्र दशा होती है। ५. ये मिश्रभाव किसी भी नवीन कर्मबंध के लिए कारण नहीं हैं। ___ इत्यादि अनेक रूपों में यह सर्वघाति प्रकृति अन्य सर्वघाति प्रकृतिओं से पृथक् होने के कारण जात्यंतर सर्वघाति कहलाती है। प्रश्न २२ : इस सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान का काल कितना है ? उत्तर : सम्यग्मिथ्यात्व नामक इस तीसरे गुणस्थान का काल सामान्य से अन्तर्मुहूर्त है। उसमें भी जघन्य-काल सर्व लघु अंतर्मुहूर्त अर्थात् एक समय अधिक एक आवली प्रमाण है, उत्कृष्ट-काल सर्वोत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त अर्थात् दो समय कम ४८ मिनिट प्रमाण है; उन दोनों के मध्यवर्ती सभी समय मध्यम-काल जानना चाहिए। अंतर्बाह्य कारणों की विविधता से यह विविधता हो जाती है। प्रश्न २४ : इस सम्यग्मिथ्यात्व नामक तीसरे गुणस्थान से जीव कहाँ/ किस गुणस्थान में जा सकता है और कहाँ से यहाँ आ सकता है? अर्थात् गुणस्थान की अपेक्षा इसका गमनागमन बताइए। उत्तर : इस सम्यग्मिथ्यात्व नामक तीसरे गुणस्थान से जीव आरोहण करने पर चौथे अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान में और अवरोहण करने पर पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में जा सकता है। यहाँ आने के लिए चार मार्ग हैं
औपशमिक या क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि छठवें प्रमत्तसंयत, पाँचवें देशविरत और चौथे अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान से इसमें आ सकते हैं तथा २८ प्रकृतिओं की सत्तावाला सादि मिथ्यादृष्टि पहले मिथ्यात्व गुणस्थान से भी इसमें आ सकता है। इसे संदृष्टि द्वारा इसप्रकार समझ सकते हैं -
- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/१२२