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स्वामी अपनी धवल-टीका में करते हैं। ३. क्षायोपशमिक भाव कहने की तीसरी अपेक्षा बताते हुए वे लिखते हैं कि वास्तव में जात्यंतर सर्वघातिरूप सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का उदय आप्त, आगम और पदार्थ संबंधी समीचीन श्रद्धा को पूर्णरूप से नष्ट करने में समर्थ नहीं है; वरन् इसके उदय में समीचीन और असमीचीन आप्त, आगम और पदार्थ को युगपत् विषय करनेवाली मिश्र श्रद्धा उत्पन्न होती है; अत: इसे क्षायोपशमिक/मिश्र भाव कहा है।
इसप्रकार इस सम्यग्मिथ्यात्व नामक तीसरे गुणस्थान में मुख्यतया दर्शनमोहनीय कर्म की अपेक्षा क्षायोपशमिक भाव माना गया है; इसे ही कथंचित् औदयिक भाव भी कहा जा सकता है। प्रश्न २२ : सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के जात्यंतर पने को स्पष्ट कीजिए। उत्तर : सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति जात्यंतर सर्वघाति प्रकृति है। जात्यंतर शब्द में जाति और अंतर-ये दो शब्द हैं। जाति-अपने ही समान स्वभाववाली; अंतर=पृथक्, भिन्न । यह प्रकृति अपने ही समान स्वभाववाली अन्य प्रकृ -तिओं से पृथक् प्रकार की है; अत: यह जात्यंतर कहलाती है।
ज्ञानावरण आदि ८ मूल कर्म प्रकृतिओं में से सर्वघाति-देशघाति का भेद एकमात्र ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय – इन चार घाति कर्मों की ४७ उत्तर प्रकृतिओं में ही होता है। इनमें से २१ प्रकृतिआँ सर्वघाति और २६ प्रकृतिआँ देशघाति हैं। जिनमें क्षयोपशम की स्थिति बनती है अर्थात् लता, दारु (देवदारु), अस्थि और शैल खंड के समान कार्य करने की शक्ति होती है; वे देशघाति कहलाती हैं तथा जिनमें लता के समान कार्य करने की शक्ति नहीं होती है; वे सर्वघाति कहलाती हैं। ___ इस सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति में लता के समान कार्य करने की शक्ति नहीं होने से यह सर्वघाति प्रकृति है; तथापि केवलज्ञानावरण आदि अन्य २० सर्वघाति प्रकृतिओं से यह पृथक् प्रकार की होने के कारण जात्यंतर सर्वघाति कहलाती है। इसकी उनसे पृथक्ता इसप्रकार है - १. इस प्रकृति का बंध नहीं होता है। प्रथमोपशम सम्यक्त्व की निमित्तता में दर्शनमोहनीय का तीन भागों में विभाजन होने पर इसका सत्त्व होता
- चतुर्दश गुणस्थान/१२१ -