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नहीं आता है। यद्यपि ये मिश्र परिणाम स्वयं तो किन्हीं भी कर्म-प्रकृतिओं के बंध के लिए कारण नहीं हैं; तथापि इनके साथ विद्यमान अप्रत्याख्यानावरण आदि कषाय परिणामों से यहाँ भी बंध होता रहता है। ___ जात्यंतर सर्वघाति सम्यग्मिथ्यात्व निमित्तक इन जात्यंतर मिश्र परिणामों से सहित जीव तीसरे गुणस्थानवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहलाता है। इसका सम्पूर्ण व्यक्त ज्ञान और आचरण/चारित्र भी मिश्र ज्ञान तथा मिश्र आचरण कहलाता है। इसमें आया मिथ्यात्व शब्द अंत्यदीपक है; अत: इससे आगे किसी भी गुणस्थान में इस शब्द का प्रयोग नहीं है। प्रश्न १९ : सम्यक् और मिथ्या- ये दोनों परिणाम परस्पर विरोधी परिणाम होने के कारण ये दोनों एक साथ नहीं रह सकते हैं; अतः सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान की सत्ता कैसे सम्भव है ? उत्तर : ऐसा नहीं है। आत्मा अनंत-धर्मात्मक होने से तथा उन अनंत धर्मों में सहानवस्था-लक्षण विरोध (एक साथ नहीं रह पाने वाला विरोध) नहीं होने के कारण सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान की सत्ता सम्भव है। यद्यपि भव्यत्व-अभव्यत्व आदि के समान पूर्णतया परस्पर विरोधी धर्म एक साथ एक आत्मा में नहीं रहते हैं; तथापि कथंचित् विरोधी प्रतीत होनेवाले धर्म अपेक्षा-भेद से अविरोधी बनकर मित्रामित्र-न्याय से एक आत्मा में एक साथ रह लेते हैं। - इसप्रकार सम्यग्मिथ्यात्वरूप इस मिश्र गुणस्थान की सत्ता सिद्ध होती है। इसमें मिथ्यात्व के उदयवाले मिथ्यात्व परिणामों का अभाव होने से सम्यक् और पूर्ण सम्यक्त्व का अभाव होने से मिथ्यात्व - इसप्रकार एक साथ सम्यग्मिथ्यात्वरूप मिश्र परिणाम बन जाते हैं। इनसे सहित सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव मिश्र गुणस्थानवर्ती कहलाता है। यह गुणस्थान सैनी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव को चारों गति में हो सकता है; अपर्याप्तक और असैनी दशा में यह कभी भी नहीं होता है। प्रश्न २०: ये मिश्र परिणाम तो विनय या संशय मिथ्यात्व जैसे लगते हैं। यदि ये उन रूप नहीं हैं तो इनमें परस्पर क्या अंतर है ?
- चतुर्दश गुणस्थान/११७