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"सम्मामिच्छुदयेण य, जत्तंतरसव्वधादिकज्जेण।
ण य सम्म मिच्छं पि य, सम्मिस्सो होदि परिणामो॥२१॥ दहिगुडमिव वा मिस्सं, पुहभावं णेव कारिदुं सक्कं। एवं मिस्स य भावो, सम्मामिच्छोत्ति णादव्वो॥२२॥ जात्यंतर सर्वघाति कार्य करनेवाले सम्यग्मिथ्यात्व के उदय से न तो इस जीव के सम्यक्त्वरूप परिणाम होते हैं और न ही मिथ्यात्वरूप परिणाम होते हैं; वरन् सम्मिश्र परिणाम होते हैं। __ जैसे भली-भाँति मिलाए गए दही और गुड़ के मिश्रण को पृथक्पृथक् करना सम्भव नहीं है; उसीप्रकार इस मिश्रभाव को पृथक्-पृथक् करना संभव नहीं है; अत: इसे सम्यग्मिथ्यात्व जानना चाहिए।"
ये भाव न तो पूर्णतया समीचीन श्रद्धा-सम्पन्न हैं और न ही पूर्णतया असमीचीन श्रद्धा-युक्त हैं। इसमें सच्चे देव-शास्त्र-गुरु और मिथ्या देवशास्त्र-गुरु – दोनों की श्रद्धा एक साथ रहती है; जीवादि प्रयोजनभूत तत्त्वों की सम्यक् और असम्यक् श्रद्धा- दोनों एक साथ चलती रहती हैं।
दर्शनमोहनीय कर्म की अपेक्षा इस गुणस्थान में क्षायोपशमिक भाव माना गया है। क्षायिक सम्यग्दृष्टि के सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति की सत्ता मात्र भी नहीं होने से इसे छोड़कर शेष दो - औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टिओं को अधोपतन के काल में यह गुणस्थान प्राप्त हो सकता है। २८ प्रकृतिओं की सत्तावाला सादि मिथ्यादृष्टि जीव भी ऊर्ध्वगमन के काल में इस गुणस्थान को प्राप्त कर सकता है।
इस गुणस्थान में नवीन आयु का बंध नहीं होता है। इसमें मरण और मारणान्तिक समुद्घात भी नहीं होता है। कुछ आचार्यों का ऐसा मत है कि यदि पहले निथ्यात्व गुणस्थान में आयु बंध हुआ हो तो वहाँ जाकर ही मरण होता है और यदि पहले सम्यक्त्व दशा में आयु का बंध हुआ हो तो पुनः उसे प्राप्त कर ही मरण होता है। ___ इस गुणस्थान से सीधे देश-संयम या सकल-संयम के परिणामों की प्राप्ति नहीं होती है। तीर्थंकर प्रकृति की सत्तावाला जीव इस गुणस्थान में
— तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/११६