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यह गुणस्थान तथा इससे आगे के सभी गुणस्थान अभव्य या अति दूरानुदूर भव्य जीव को कभी भी नहीं होते हैं तथा यह नियम से पहले गुणस्थान से आगे बढ़ने के बाद अधोपतन के समय ही होता है; अत: इसका काल वास्तव में तो अनादि-अनन्त नहीं है; तथापि अनेक जीवों की मुख्यता से परम्परा की अपेक्षा उपचार से इसका काल अनादि-अनंत भी कहा जा सकता है। प्रश्न १७ : इस सासादन गुणस्थान से जीव कहाँ/किस गुणस्थान में जा सकता है तथा इसमें कहाँ से आ सकता है ? अर्थात् इस गुणस्थान का गुणस्थान की अपेक्षा गमनागमन बताइए। उत्तर : इस सासादन गुणस्थान से जीव एकमात्र पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में ही जाता है। भट्ट अकलंकदेव अपने ग्रन्थ तत्त्वार्थ राजवार्तिक में इसे इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "स हि मिथ्यादर्शनोदयफलमापादयन् मिथ्यादर्शनमेव प्रवेशयति - वह मिथ्यादर्शन के उदयरूप फल को प्राप्त करता हुआ मिथ्यादर्शन में ही प्रवेश करता है।"
आगमन की अपेक्षा एकमात्र औपशमिक सम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयत नामक छठवें गुणस्थान से, देशविरत नामक पाँचवें गुणस्थान से और अविरत सम्यक्त्व नामक चौथे गुणस्थान से इस गुणस्थान में आ सकता है। परिणामों की विविधता के कारण ऐसा भेद हो जाता है। इन दोनों स्थितिओं को हम संदृष्टि द्वारा इसप्रकार समझ सकते हैंदूसरे सासादन सम्यक्त्व गुणस्थान का गमनागमन
छठवें प्रमत्त संयत से पाँचवें देशविरत से
-चौथे अविरत सम्यक्त्व से | दूसरा सासादन गुणस्थान । गमन : मात्र पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में प्रश्न १८ : तीसरे सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान का स्वरूप स्पष्ट कीजिए। उत्तर : आचार्य नेमिचंद्र-सिद्धान्त-चक्रवर्ती अपने गोम्मटसार जीवकाण्ड नामक ग्रन्थ में इस गणस्थान का स्वरूप इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
- चतुर्दश गुणस्थान/११५ -
आगमन