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दर्शनमोहनीय की उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम – इन चार दशाओं में से कोई भी दशा नहीं है; अत: इस सासादन के साथ सम्यक्त्व' शब्द का प्रयोग किया गया है; मिथ्यात्व शब्द का प्रयोग नहीं।" __इसप्रकार विपरीत अभिनिवेशरूप होने पर भी दर्शनमोहनीय निमित्तक मिथ्यात्वमय विपरीत अभिनिवेश से पृथक् होने के कारण ये परिणाम पृथक् गिने जाते हैं तथा मिथ्यात्व की अपेक्षा कुछ कम और सम्यग्मिथ्यात्व की
अपेक्षा अधिक अशुद्धतामय होने से इन्हें उन दोनों के मध्य दूसरे स्थान पर रखा जाता है।
इसप्रकार सासादन सम्यक्त्व परिणामवाला एक पृथक् गुणस्थान है। इन परिणामों से सहित जीव सासादन सम्यग्दृष्टि कहलाता है। यह सदा अधोपतन दशा में ही होता है। प्रश्न १५:आचार्य नेमिचंद्र सिद्धान्त-चक्रवर्ती ने सम्मत्तरयणपव्वयसिहरादो-सम्यक्त्वरूपीरत्न-पर्वत के शिखर से' इस वाक्य द्वारा सम्यक्त्व को रत्न-पर्वत का शिखर कहा है; इसका कारण क्या है ? उत्तर : आचार्यदेव के द्वारा सम्यक्त्व को रत्न-पर्वत का शिखर कहने का कारण यह है कि जैसे लोक में रत्न-पर्वत स्वयं रत्नमय तो होता ही है, इसके साथ ही उसमें और भी अनेकानेक रत्न होते हैं; अत: अन्य रत्नों को प्राप्त करने का कारण भी होता है तथा पर्वत-शिखर स्वयं उच्च/ उन्नत होने के कारण वहाँ पहुँचनेवाला स्वयमेव उच्च/उन्नत स्थान को प्राप्त कर लेता है; उसीप्रकार सम्यक्त्व ही नवलब्धि आदि सभी रत्नों/ गुणों को प्राप्त करने का मूल आधार है तथा इसे प्राप्त करने वाला जीव नियम से सर्वोच्च स्थान सिद्ध पद को प्राप्त कर लेता है; अतः सम्यक्त्व को रत्न-पर्वत के शिखर की उपमा दी गई है। प्रश्न १६ : इस सासादन गुणस्थान का काल स्पष्ट कीजिए। उत्तर : इस सासादन गुणस्थान का जघन्य-काल एक समय और उत्कृष्टकाल छह आवली (असंख्य समयों की एक आवली) प्रमाण है। इन दोनों के बीच का सभी काल मध्यम-काल कहलाता है। जीवों के परिणामों की विविधता के कारण यह काल की विविधता हो जाती है। तात्पर्य यह है कि इस गुणस्थान का काल सादि-सांत है।
- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/११४ -