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प्रश्न १४: श्रद्धा गुण की मुख्यता से जीव की सम्यक्त्व या मिथ्यात्वरूप दो ही दशाएँ हो सकती हैं; यह सासादन सम्यक्त्वरूप दशा बनना कैसे सम्भव है ? उत्तर : श्रद्धा गुण की मुख्यता से जीव की सम्यक्त्व या मिथ्यात्वरूप दो ही दशाएँ हो सकती हैं - यह अत्यंत स्थूल कथन है। करणानुयोग में इस अपेक्षा जीव की चार दशाएँ बताई गईं हैं - १. मिथ्यात्व, २. सासादन सम्यक्त्व, ३. सम्यग्मिथ्यात्व और ४. सम्यक्त्व । सम्यक्त्व रूप दशा को भी विविध अपेक्षाओं से अनेकरूपों में विभक्त किया है।
सासादन सम्यक्त्वरूप परिणाम को अन्य से पृथक् बताने के लिए आचार्यों ने अनेक-अनेक तर्क, युक्तिओं, आगम-प्रमाणों से विचार किया है; जिनका संक्षिप्त सार इसप्रकार है - __“विपरीत अभिनिवेश/असमीचीन रुचिरूप परिणाम को मिथ्यात्व कहते हैं और सम्यक् अभिनिवेश/समीचीन रुचिरूप परिणाम को सम्यक्त्व कहते हैं। इस सासादन गुणस्थान में असमीचीन रुचि होने के कारण यद्यपि यहाँ विपरीताभिनिवेश है; तथापि यहाँ दर्शनमोहनीय कर्म का उदय नहीं होने से तन्निमित्तक मिथ्यात्व परिणाम का अभाव है; अत: इसे मिथ्यात्व नहीं कह सकते हैं। ___ यद्यपि अनंतानुबंधी नामक चारित्रमोहनीय कर्म-प्रकृति के उदय में भी विपरीत अभिनिवेश होता है; परन्तु वह दर्शनमोहनीय निमित्तक विपरीत अभिनिवेश के समान नहीं है; वरन् उससे भिन्न है; अत: इन परिणामों को भिन्न नाम ‘सासादन' दिया गया है।
सासादन के साथ ‘सम्यक्त्व' कहने का कारण यह है कि एक तो इसका समय वास्तव में औपशमिक सम्यक्त्व का समय ही है; दूसरे यह पहले सम्यक्त्वी था; अत: भूतपूर्व नैगम नय से इसे सम्यग्दृष्टि कहना उचित है।
तीसरा कारण यह है कि यद्यपि अनंतानुबंधी प्रकृतिआँ द्विस्वभावी हैं। ये सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र-दोनों के घात में निमित्त होती हैं; तथापि ये मूलतया चारित्रमोहनीय की प्रकृतिआँ हैं। प्रारम्भिक चार गुणस्थानों का विभाजन दर्शनमोहनीय की मुख्यता से है। इस सासादन गुणस्थान में
- चतुर्दश गुणस्थान/११३