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________________ इसका सम्पूर्ण ज्ञान मिथ्याज्ञान और सभीप्रकार का चारित्र मिथ्याचारित्र कहलाता है। यहाँ यद्यपि सम्यक्त्व तो छूट गया है; तथापि अभी समय उसी समयक्त्व का होने से मिथ्यात्व का उदय यहाँ नहीं हुआ होने से तथा पहले सम्यक्त्व होने से मिथ्यात्व नहीं कहा जाता है; मात्र अनन्तानुबंधी कषाय चतुष्क में से किसी एक का उदय आ जाने से विपरीताभिनिवेश हो गया होने के कारण इसे सासादन सम्यक्त्व कहा जाता है, आचार्यों ने इस जीव को एकदेशजिन भी कहा है। यह गुणस्थान चारों गतिओं में हो सकता है; परन्तु नरक गति की अपर्याप्तक दशा में यह नहीं होता है; क्योंकि इस गुणस्थान में मरण करनेवाला जीव नियम से नरक गति में नहीं जाता है । इसीप्रकार तीर्थंकर प्रकृति, आहारक शरीर और आहारक शरीर अंगोपांग कर्म-प्रकृतिओं की सत्तावाला जीव भी इस गुणस्थान में नहीं आता है। - इस गुणस्थान में दर्शनमोहनीय की उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशमइन चार दशाओं में से कोई भी दशा नहीं होने के कारण इस दर्शनमोहनीय कर्म की अपेक्षा इस गुणस्थान में पारिणामिक भाव कहा गया है। स्वरूपाचरणमय चारित्र के एक भेद सम्यक्त्वाचरण चारित्र के घातक अनंतानुबंधी क्रोधादि चतुष्क में से किसी एक का उदय आ जाने पर एकमात्र औपशमिक सम्यक्त्व के काल में ही यह गुणस्थान बनता है। ये परिणाम मिथ्यात्वरूप, सम्यक्त्वरूप या उभयरूप नहीं होने के कारण इन सभी से पृथक् इन परिणामों को सासादन सम्यक्त्व कहा गया है। अनंतानुबंधी के उदयरूप इन परिणामों से स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा और प्रचलाप्रचला इन तीन दर्शनावरण; अनंतानुबंधी - क्रोध, मान, माया, लोभ और स्त्रीवेद - इन पाँच मोहनीय; तिर्यंच आयुष्करूप एक आयुष्क; दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय; न्यग्रोध- परिमंडल, स्वाति, कुब्जक, वामनरूप चार संस्थान; वज्रनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलितरूप चार संहनन; अप्रशस्त विहायोगति, तिर्यंचगति, तिर्यंच गत्यानुपूर्वी और उद्योत - इन पंद्रह नामकर्म तथा नीच गोत्ररूप एक गोत्रकर्म - इन पापमय २५ कर्म प्रकृतिओं का बंध होता है । चतुर्दश गुणस्थान / १११ ―――― -
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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