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सादि-सांत कहलाता है। ऐसी स्थिति में उसका जघन्य-काल अंतर्मुहूर्त
और उत्कृष्ट-काल कुछ कम अर्ध पुद्गल परावर्तन काल पर्यंत हो सकता है। इन दोनों के बीच के सभी समय मध्यम-काल कहलाते हैं।
इसप्रकार जीवों की विविध पात्रता के कारण इस गुणस्थान का काल अनादि-अनंत, अनादि-सांत और सादि-सांत है। यह सभी कथन परम्परा की अपेक्षा से है; वास्तव में तो मिथ्यात्व दशा जीव द्रव्य की एक पर्याय होने से उसका काल मात्र एक समय अर्थात् सादि-सांत ही है। प्रश्न ११: आत्मोन्मुखी पुरुषार्थ करने पर यह जीव इस मिथ्यात्व गुणस्थान से किस-किस गुणस्थान पर्यंत जा सकता है तथा पुरुषार्थ की विपरीतता में किस-किस गुणस्थान से यह जीव पुन: यहाँ आ सकता है? अर्थात् इस गुणस्थान का गुणस्थान की अपेक्षा गमनागमन बताइए। उत्तर : प्रत्येक जीव अनादि से इस मिथ्यात्व गुणस्थान में तो है ही। पाँच लब्धि पूर्वक आत्मोन्मुखी पुरुषार्थ करने पर यह सामान्य गृहस्थ या द्रव्यलिंगी श्रावक-मुनिदशावाला जीव अपनी योग्यतानुसार यहाँ से सीधा चौथे अविरत सम्यक्त्व, पाँचवें देशविरत या सातवें अप्रमत्त-संयत गुणस्थान को प्राप्त हो जाता है। __ सादि मिथ्यादृष्टि जीव तीसरे सम्यग्मिथ्यात्वरूप मिश्र गुणस्थान को भी प्राप्त हो सकता है।
(किसी एक विवक्षित गुणस्थान से अन्य गुणस्थान में जाने की स्थिति को जिनागम में गमन या आरोहण-अवरोहण क्रम कहते हैं।) ___ आगमन की अपेक्षा औपशमिक या क्षायोपशमिक सम्यक्त्व-सम्पन्न
छठवें प्रमत्तसंयत, पाँचवें देशविरत, चौथे अविरत सम्यक्त्व से इस पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में आ सकते हैं तथा तीसरे मिश्र गुणस्थानवर्ती भी यहाँ आ सकते हैं। दूसरे सासादन सम्यक्त्व गुणस्थान से तो एकमात्र यहाँ ही आते हैं।
(किसी अन्य गुणस्थान से किसी अन्य विवक्षित गुणस्थान में आने की स्थिति को जिनागम में आगमन कहते हैं।) इन दोनों स्थितिओं को संदृष्टि द्वारा इसप्रकार समझ सकते हैं -
चतुर्दश गुणस्थान/१०९ -