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और अनुभाग तथा स्वामिओं की अपेक्षा अनन्त भेद हो जाते हैं।" . इसप्रकार जिनागम में मिथ्यात्व दशा के एक से लेकर अनन्त भेद तक बताए गए हैं। जिनमें से अगृहीत और गृहीत मिथ्यात्व-ये दो भेद प्रमुख हैं। एकेन्द्रिय से लेकर सैनी पंचेन्द्रिय पर्यंत सभी मिथ्यादृष्टि जीवों के अनादि से प्रवाहरूप में चली आई विपरीत मान्यता आदि को अगृहीत मिथ्यात्व कहते हैं तथा मुख्यरूप से मनुष्यों में दूसरों के उपदेश आदि के द्वारा ग्रहण की गई विपरीत मान्यता आदि को गृहीत मिथ्यात्व कहते हैं। इससे अगृहीत मिथ्यात्व विशेष पुष्ट हो जाता है। यह मिथ्यात्व मनुष्यों में नया उत्पन्न होता है। यहाँ के संस्कार वश कदाचित् देव, सैनी तिर्यंच और नरकगति में भी पाया जा सकता है।
मिथ्यात्व नहीं छूटने और छूटने की अपेक्षा भी इसके दो भेद हो जाते हैं - अनादि मिथ्यात्व और सादि मिथ्यात्व।
परम्परा की अपेक्षा जो मिथ्यात्व आज तक कभी भी नहीं छूटा है, वह अनादि मिथ्यात्व कहलाता है तथा जो मिथ्यात्व एक बार छूटकर सम्यक्त्व होने के बाद पुन: मिथ्यात्व हो गया है, वह सादि मिथ्यात्व कहलाता है। सादि मिथ्यात्व अधिक से अधिक कुछ कम अर्ध पुद्गल परावर्तन काल पर्यंत ही रह सकता है। प्रश्न १० : यह मिथ्यात्व गुणस्थान कब से है और कब तक रहेगा? उत्तर : प्रत्येक जीव अनादि से इस मिथ्यात्व गुणस्थान में ही है। एकेन्द्रिय से लेकर असैनी पंचेन्द्रिय पर्यंत के जीव तो सदा इस गुणस्थान वाले ही होते हैं। एकमात्र सैनी पंचेन्द्रिय ही इसे नष्ट करने का पुरुषार्थ कर इससे निकल सकता है; वह भी पाँच लब्धिरूप विशिष्ट योग्यता विकसित होने पर ही; अन्यथा नहीं - इस अपेक्षा यह गुणस्थान अनादि से है। अभव्य जीव और अति दूरानुदूर भव्य जीव इसे नष्ट करने में असमर्थ होने के कारण उनकी अपेक्षा यह अनंतकाल पर्यंत रहता है। __ अन्य जीवों की अपेक्षा यह अनादि-सांत, सादि-सांत है। जब कोई अनादि मिथ्यादृष्टि जीव आत्मोन्मुखी पुरुषार्थ द्वारा उसे नष्ट कर सम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है तब उसका वह मिथ्यात्व अनादि-सांत कहलाता है। यदि पुन: वह सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्व में आ जाता है तो उसका वह मिथ्यात्व
- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/१०८ -