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उत्तर : सामान्य से तो सभी मिथ्यात्व दशाएँ एक मिथ्यात्वरूप ही होने के कारण मिथ्यात्व मात्र मिथ्यात्व ही है, उसमें कोई भेद नहीं है: तथापि उन मिथ्यात्व दशाओं में पारस्परिक अंतर बताने के लिए आचार्यों ने उसके भी भेद किए हैं। वे प्रकार हैं
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१. आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने अपने टीकाग्रन्थ सर्वार्थसिद्धि में मिथ्यादर्शन के दो भेद किए हैं - १. नैसर्गिक, २. परोपदेश पूर्वक । इनका स्वरूप स्पष्ट करते हुए वे वहीं लिखते हैं- 'उपदेश के बिना मिथ्यात्व कर्म के उदय से होने वाले जीवादि तत्त्वार्थों के अश्रद्धान को नैसर्गिक मिथ्यादर्शन कहते हैं तथा दूसरों के उपदेश से होनेवाला मिथ्यादर्शन परोपदेश पूर्वक है।'
भगवती आराधना ग्रन्थ में आचार्य शिवार्य ने इन्हें क्रमश: अनभिगृहीत और अभिगृहीत शब्द द्वारा स्पष्ट किया है। बाद में सरल शब्दों में इन्हें 'अगृहीत और गृहीत मिथ्यात्व' शब्दों द्वारा कहा जाने लगा।
परोपदेश पूर्वक/निमित्तक मिथ्यादर्शन के क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानी और वैनयिक - ये चार भेद किए गए हैं। इनमें से क्रियावादिओं के १८०, अक्रियावादिओं के ८४, अज्ञानवादिओं के ६७ और वैनयिकवादिओं के ३२ भेद - इसप्रकार सब मिलकर ३६३ उत्तर भेद हो जाते हैं । २. भगवती आराधना, मूलाचार, धवल टीका ग्रन्थ में मिथ्यात्व के मूल में तीन भेद किए हैं - संशयित, अभिगृहीत और अनभिगृहीत । ३. प्रस्तुत ग्रन्थ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १५ उत्तरार्ध में मिथ्यात्व के एकांत, विपरीत, विनय, संशयित और अज्ञान - ये पाँच भेद किए हैं। ४. धवल टीका में आचार्य वीरसेन स्वामी मिथ्यात्व के भेदों की विस्तार से चर्चा करते हुए लिखते हैं कि -
"जावदिया वयणवहा, तावदिया चेव होंति णयवादा।
जावदिया णयवादा, तावदिया चेव होंति परसमया ॥ १०५॥ जितने वचनमार्ग हैं, उतने ही नयवाद होते हैं और जितने नयवाद हैं, उतने ही परसमय हो जाते हैं।"
इससे मिथ्यात्व के संख्यात भेद हो जाते हैं ।
५. तत्त्वार्थराजवार्तिक में इन्हीं भेदों का विस्तार करते हुए भट्ट अकलंकदेव लिखते हैं कि "मिथ्यात्व के परिणामों की अपेक्षा असंख्यात चतुर्दश गुणस्थान / १०७