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इनकी संख्या अनंतानंत बताई है। उनके मूल शब्द इसप्रकार हैं – “मिच्छाइट्ठी पावा, णंताणंता...........।" ... आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी इस मिथ्यादृष्टि जीव को अष्टपाहुड़दर्शनपाहुड़ गाथा तीसरी में भ्रष्ट और भावपाहुड़ गाथा १४३वीं में चल शव कहते हैं। उनके मूल शब्द क्रमशः इसप्रकार हैं
दंसणभट्ठा भट्ठा सणभट्ठस्स णत्थि णिव्वाणं।
सिझंति चरियभट्ठा दंसणभट्ठा ण सिझंति ॥३॥ जीवविमुक्को सबओ, दंसणमुक्को यहोइ चल सबओ। सबओ-लोय-अपुज्जो, लोउत्तरयम्मि चल-सबओ॥१४३॥
तथा प्रवचनसार गाथा २७१वीं की उत्थानिका और टीका में आचार्य श्री अमृतचन्द्रस्वामी इसे संसारतत्त्व कहते हैं। __यह मिथ्यात्व परिणाम चारों गति के सभी दशाओं वाले मिथ्यादृष्टि जीवों के होता है। इस मिथ्यात्व परिणाम से दर्शनमोहनीय और नपुंसक वेदरूप मोहनीय की दो; नरक आयुष्करूप आयुष्क की एक; नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, हुण्डक संस्थान, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, स्थावर, आताप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, एकेन्द्रिय, दो-इन्द्रिय, तीनेन्द्रिय, चारेन्द्रियरूप नामकर्म की १३ - इन तीव्रतम पापमय १६ कर्म प्रकृतिओं का बंध होता है।
द्वादशांगमय, चार अनुयोगों में विभक्त सम्पूर्ण जिनवाणी में ही मिथ्यात्व परिणाम को पूर्णतया पापमय, अनंत पापों का कारण, दु:खमय और दुःख का कारण कहा गया है; अत: मर-पच कर भी इसे नष्ट करने का पुरुषार्थ करना चाहिए।
सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के माध्यम से प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वों का सम्यक् निर्णय कर ज्ञानानंद-स्वभावी, अनादि-अनंत, एकरूप अपने
आत्मा को ही अपनत्वरूप से स्वीकार करने/अपनाने का प्रयास ही मिथ्यात्व को नष्ट करने का पुरुषार्थ है तथा इस अपने आत्मा को ही अपनत्वरूप से अपना लेना ही मिथ्यात्व का नाश है; मोक्षमार्ग का प्रारम्भ है, अतीन्द्रिय सुख की प्रगटता है। प्रश्न ९ : मिथ्यात्व दशा के भेद बताइए।
- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/१०६ -