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मिच्छाइट्ठी जीवो उवइटुं पवयणं ण सद्दहदि।
सद्दहदि असब्भावं उवइष्टुं वा अणुवइढें ॥१८।। मिथ्यात्व का अनुभव करने वाला अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीव विपरीत श्रद्धावाला होता है। जैसे ज्वरवान (बुखारवाले) व्यक्ति को मधुर रस (स्वादिष्ट भोजन-पान आदि) भी अच्छा नहीं लगता है; उसीप्रकार इसे वास्तविक धर्म अच्छा नहीं लगता है।
यह मिथ्यादृष्टि जीव उपदिष्ट प्रवचन अर्थात् पूर्वापर विरुद्ध आदि सभी दोषों से रहित, वीतरागता-पोषक सर्वज्ञ भगवान के वचनों की तो श्रद्धा नहीं करता है और बताए गए या नहीं बताए गए असद्भाव का/पदार्थ के विपरीत स्वरूप का इच्छानुसार श्रद्धान करता है।" ___ मिथ्या और त्व-इन दो शब्दों से मिलकर 'मिथ्यात्व' शब्द बनता है। मिथ्या असत्य, अयथार्थ, गलत, झूठा, उल्टा, विपरीत, वितथ, व्यलीक आदि; त्व-भाव, पना आदि अर्थात् पदार्थ/वस्तु का स्वरूप जैसा नहीं है, वैसा मानना, जानना, आचरण करना मिथ्यात्व है। __ ज्ञानानंद-स्वभावी, अनंत वैभव-सम्पन्न, शाश्वत अपने भगवान आत्मा को अपनत्वरूप से स्वीकार नहीं कर; शरीर आदि संयोगों, रागादि संयोगी भावों, मतिज्ञान आदि अल्पविकसित पर्यायों, केवलज्ञान आदि पूर्ण विकसित पर्यायों, गुण-भेदों, प्रदेश-भेदों इत्यादि में से किसी भी रूप स्वयं को मानना, जानना, आचरण करना मिथ्यात्व है। देव-शास्त्रगुरु के स्वरूप संबंधी विपरीतता, स्व-पर के स्वरूप में विपरीतता, प्रयोजनभूत सात तत्त्वों में विपरीतता आदि सभी मिथ्यात्व रूप दशाएँ ही हैं।
इन विपरीतताओं सहित सम्पूर्ण प्रगट ज्ञान मिथ्याज्ञान और सम्पूर्ण आचरण मिथ्याचारित्र कहलाता है। - इन परिणामों से सहित जीव मिथ्यादृष्टि कहलाता है। यहाँ दृष्टि शब्द का अर्थ रुचि, श्रद्धा, प्रत्यय, प्रतीति, मान्यता, विश्वास लिया गया है अर्थात् विपरीत श्रद्धा वाले जीव मिथ्यादृष्टि हैं - ऐसा भाव है। ये सभी जीव बहिरात्मा कहलाते हैं। गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ६२३ में आचार्य श्री नेमिचंद्र-सिद्धान्त-चक्रवर्ती ने इन जीवों को पाप जीव कहा है तथा
- चतुर्दश गुणस्थान/१०५