SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ और सुखी दोनों रूप/मिश्ररूप हैं । ग्यारहवें, बारहवेंवाली दशाएँ पूर्ण सुखी हैं; तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानवर्ती अनंत सुखी हैं तथा गुणस्थानातीत सिद्ध दशा अव्याबाध सुखमय है। ७. विराधक, साधक, साध्य दशाओं की अपेक्षा : पहले से तीसरे गुणस्थान पर्यंत की दशाएँ विराधक हैं। चौथे से बारहवें पर्यंत की दशाएँ साधक हैं। शेष तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानवर्ती तथा सिद्ध भगवान साध्य दशा-सम्पन्न हैं। ८. बहिरात्मा, अंतरात्मा, परमात्मा की अपेक्षा : पहले से तीसरे गुणस्थान पर्यंत की दशाएँ बहिरात्मा हैं। चौथेसे बारहवें पर्यंत की दशाएँ अंतरात्मा हैं। तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानवर्ती और सिद्ध दशाएँ परमात्मा हैं। ९. (धर्म) गुरु की अपेक्षा : छठवें से चौदहवें गुणस्थान पर्यंत की सभी दशाएँ (धर्म) गुरु रूप हैं। १०. (सच्चे) देव की अपेक्षा : तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानवर्ती तथा गुणस्थानातीत सिद्ध दशा (सच्चे) देवरूप हैं। ११. अधार्मिक धार्मिक की अपेक्षा : पहले से तीसरे गुणस्थान पर्यंत की दशाएँ अधार्मिक हैं। शेष चौथे से चौदहवें गुणस्थान पर्यंत और सिद्ध - ये सभी दशाएँ धार्मिक हैं। ___ इत्यादि अनेक-अनेक अपेक्षाओं से इन चौदह गुणस्थानों को अति संक्षेप में अनेक प्रकार से विभाजित किया जा सकता है। . प्रश्न ८ : पहले मिथ्यात्व गुणस्थान का स्वरूप स्पष्ट कीजिए। उत्तर : इस पहले गुणस्थान का स्वरूप बताते हुए आचार्य नेमिचन्द्रसिद्धान्त-चक्रवर्ती अपनी कृति गोम्मटसार जीवकाण्ड में लिखते हैं - “मिच्छोदयेण मिच्छत्तमसदहणं तु तच्चअत्थाणं। एयंतं विवरीयं, विणयं संसयिदमण्णाणं ॥१५॥ मिथ्यात्व के उदय से तत्त्वार्थों के अश्रद्धानमय एकांत, विपरीत, विनय, संशयित, अज्ञानरूप मिथ्यात्व होता है।" इसे ही स्पष्ट करते हुए वहीं वे आगे लिखते हैं - "मिच्छत्तं वेदंतो, जीवो विवरीयदसणो होदि। ण य धम्मं रोचेदि हु, महुरं खु रसं जहा जरिदो ॥१७॥ - तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/१०४
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy