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क्योंकि सभी गुणस्थान इस क्रमानुसार उत्पन्न नहीं होते हैं। यद्यपि सातवाँ, आठवाँ, नवमाँ, दशवाँ तथा बारहवें से तेरहवाँ, चौदहवाँ – ये गुणस्थान इसी क्रम से उत्पन्न भी होते हैं; तथापि कभी भी पहले गुणस्थान के बाद दूसरा, पाँचवें के बाद छठवाँ और ग्यारहवें के बाद बारहवाँ गुणस्थान उत्पन्न नहीं होता है; अतः इनका यह क्रम उत्पत्ति की अपेक्षा नहीं है; वरन् आगे-आगे घटती हुई अशुद्धता और बढ़ती हुई शुद्धता की अपेक्षा से है । इसप्रकार घटती हुई अशुद्धि और बढ़ती हुई शुद्धि की मात्रा के अनुसार गुणस्थानों का यह क्रम रखा गया है।
प्रश्न ७ : अत्यन्त संक्षेप में समझने के लिए इन गुणस्थानों को किनकिन अपेक्षाओं से विभक्त किया जा सकता है ?
उत्तर : अत्यन्त संक्षेप में समझने के लिए इन गुणस्थानों को अनेक अपेक्षाओं से विभक्त किया जा सकता है। जिनमें से कुछ इसप्रकार हैं१. मिथ्यात्व और सम्यक्त्व की अपेक्षा : पहले और दूसरे गुणस्थानवर्ती मिथ्यात्वी हैं, चौथे से चौदहवें गुणस्थान पर्यंत सभी संसारी और गुणस्थानातीत सिद्ध भगवान सम्यक्त्वी हैं। तीसरे गुणस्थानवर्ती मिश्र/ सम्यग्मिथ्यात्वी हैं।
२. अविरत और विरत की अपेक्षा : पहले से चौथे गुणस्थान पर्यंत जीव की दशाएँ अविरत हैं। छठवें से चौदहवें गुणस्थान पर्यंत जीव की दशाएँ विरत हैं। पाँचवें गुणस्थानवर्ती जीव की दशाएँ विरताविरत / देशविरत हैं । ३. प्रमत्त और अप्रमत्त की अपेक्षा : पहले से छठवें गुणस्थान पर्यंत की सभी दशाएँ प्रमत्त हैं। इससे आगे की सभी दशाएँ अप्रमत्त हैं। ४. कषाय और अकषाय की अपेक्षा : पहले से दशवें गुणस्थान पर्यंत की सभी दशाएँ उत्तरोत्तर हीन-हीन कषायवान हैं। इससे आगे सभी अकषायी / कषाय-रहित हैं ।
५. योग और अयोग की अपेक्षा : पहले से तेरहवें गुणस्थान पर्यंत की सभी दशाएँ योगवान / योग-सहित हैं तथा चौदहवें गुणस्थान की दशा अयोगी/योग-रहित है।
६. दुःख और सुख की अपेक्षा : पहले से तीसरे गुणस्थान पर्यंत की सभी दशाएं पूर्णतया दुःखी ही हैं। चौथे से दशवें पर्यंत की दशाएं दुःखी चतुर्दश गुणस्थान / १०३