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उवसंतखीणमोहो, सजोगकेवलिजिणो अजोगी य। चउदस जीवसमासा, कमेण सिद्धा य णादव्वा ॥ मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरतसम्यक्त्व, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म - साम्पराय, उपशांतमोह, क्षीण- मोह, सयोग केवली जिन और अयोग केवली जिन ये क्रम से चौदह गुणस्थान हैं। इन सबके बाद में होने वाली सिद्ध दशा इन सबसे रहित जानना चाहिए ।"
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इसप्रकार समझने-समझाने की अपेक्षा गुणस्थानों के चौदह भेद हैं। प्रश्न ६ : गुणस्थान के चौदह भेद इस क्रम से क्यों बताए जाते हैं ? उत्तर : मोह आदि दोषों के घटते क्रम की अपेक्षा गुणस्थान के चौदह भेद इस क्रम से बताए जाते हैं अथवा विशुद्धि / गुणरूप दशाओं की वृद्धि की अपेक्षा उनका यह क्रम बताया जाता है। जैसे पहले मिथ्यात्व गुणस्थान की अपेक्षा दूसरे सासादन गुणस्थान में मोहादि दोष कम हैं। यहाँ दर्शनमोहनीय का उदय नहीं होने से उस संबंधी औदयिक भावरूप मोह नहीं है। पहले गुणस्थान में दर्शनमोहनीय और अनंतानुबंधी चतुष्करूप चारित्रमोहनीय का उदय होने से, जीव की दशा में इन दोनों संबंधी औदयिक भावरूप मिथ्यात्व/विपरीताभिनिवेश था; परन्तु दूसरे गुणस्थान में इन दोनों में से मात्र अनंतानुबंधी क्रोधादि चतुष्क में से किसी एक चारित्र - मोहनीय का उदय होने के कारण यहाँ पहले जैसा विपरीताभिनिवेश नहीं है | दर्शनमोहनीय संबंधी विपरीतता यहाँ नहीं होने से मात्रा की अपेक्षा दोष कुछ कम है; अत: इसे दूसरे क्रमांक पर रखा गया है।
तीसरे सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में दर्शनमोहनीय की मात्र सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का उदय होने से उस संबंधी औदयिक भाव है, जो दूसरे गुणस्थान की अपेक्षा मात्रा में और भी कम अशुद्ध है; अतः इसे तीसरे क्रमांक पर रखा गया है।
इसप्रकार आगे-आगे दोषों में कमी होते जाने से तथा उसी अनुपात गुणों की व्यक्तता में वृद्धि होते जाने से गुणस्थान के इन चौदह भेदों इस क्रम से बताया गया है।
गुणस्थानों का यह क्रम उत्पत्ति की अपेक्षा नहीं समझना चाहिए; तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/१०२