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'मोहजोगभवा' अर्थात् मोह और योग के निमित्त से गुणस्थानों की उत्पत्ति होती है मोह
दर्शनमोह (स्वरूप की भ्रांति)
मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व, सम्यक् प्रकृति
(इसमें मोक्ष
मार्ग नष्ट नहीं
होता है)
१. मिथ्या. ३.सम्यक्
गुण. मिथ्यात्व
अनंतानुबंधी अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यांनावरण
चतुष्क २. सासादन
चतुष्क ४. अविरत
चतुष्क
५. देश
ਰੀਕ
६. प्रमत्त
विरत
सम्यक्त्व
सम्यक्त्व
विरत
(चतुष्क= क्रोध, मान, माया, लोभ तथा यथायोग्य नो कषाय)
मंद
७. अप्रमत्त
विरत
चारित्रमोह
(स्वरूप में अस्थिरता)
कषाय
मंदतर
८. अपूर्व -
करण
कषाय दबी (उपशम)
११.उपशान्तमोह
नौ-नो कषाय
( पृथक् से कुछ कार्य करने में समर्थ
नहीं; अत: गौण)
मंदतम
९. अनिवृत्ति -
करण
कषाय नाश
I
१२. क्षीणमोह
योग (आत्मप्रदेशों की चंचलता )
संज्वलन
चतुष्क
सूक्ष्मलोभ १०. सूक्ष्म
साम्पराय
सद्भाव में
असद्भाव में
१३. सयोग केवली
१४. अयोग केवली
मोह-योग का अभाव होने से गुणस्थानातीत सिद्ध परमेष्ठी हो जाते हैं।
• तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २ / १००