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विवक्षा में दर्शनमोहनीय की अपेक्षा पहले गुणस्थान में औदयिक भाव, दूसरे में पारिणामिक भाव, तीसरे में क्षायोपशमिक भाव और चौथे में तीन भाव अर्थात् औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक भाव हैं। __चारित्रमोहनीय की अपेक्षा शेष गुणस्थानों में से पाँचवें, छठवें और सातवें - इन तीन गुणस्थानों में क्षायोपशमिक भाव; उपशम-श्रेणीवाले आठवें से ग्यारहवें – इन चार गुणस्थानों में औपशमिक भाव; क्षपक श्रेणीवाले आठवें से बारहवें- इन चार गुणस्थानों में तथा तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान और सिद्ध भगवान के क्षायिक भाव है। तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान का भेद योग के सद्भाव और अभाव के कारण है।
इसप्रकार मोह और योग की तारतम्यरूप (हीनाधिक) दशाओं के कारण गुणस्थान उत्पन्न होते हैं। भावों की भाषा में इसे इसप्रकार कह सकते हैं - अपने परम पारिणामिक भाव की अपनत्व रूप से अस्वीकृति-स्वीकृति, तद्रूप अनाचरण-आचरण से व्यक्त होने वाले औदयिक आदिभावों/पर्यायों द्वारा गुणस्थानों की उत्पत्ति होती है।
इसप्रकार मोह और योग से उत्पन्न होने वाली श्रद्धा-चारित्र आदि गुणों की तारतम्यरूप दशाओं को गुणस्थान कहते हैं। प्रश्न ५ : गुणस्थान के कितने और कौन-कौन से भेद हैं ? उत्तर : गुणस्थान एकमात्र संसारी जीव की दशाओं में होते हैं। संसारी जीव-राशि संख्या की अपेक्षा अनंत है; इस अपेक्षा गुणस्थान के भी
अनंत भेद हो जाते हैं। ___ गुणस्थान मोह और योग की तारतम्यरूप दशाएँ हैं। ये दशाएँ विभाव होने के कारण असंख्यात लोक प्रमाण प्रकार की होती हैं; अत: इस अपेक्षा इनके असंख्यात लोक प्रमाण भेद हैं। ___ इन सापेक्ष अनंत और असंख्यात भेदों को छद्मस्थ जीवों को समझाने के लिए आचार्यों ने उन्हें चौदह भागों में विभाजित किया है। आचार्य श्री नेमिचंद्र-सिद्धान्त-चक्रवर्ती अपनी कृति गोम्मटसार जीवकाण्ड के गाथा क्रमांक ९ और १० द्वारा उनके नाम इसप्रकार लिखते हैं - "मिच्छो सासण मिस्सो, अविरदसम्मो य देसविरदो य। विरदापमत्त इदरो, अपुव्व अणियहि सुहमो य॥
- चतुर्दश गुणस्थान/९९