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हैं और गुणस्थान उनके अंश; पाँच भाव सामान्य हैं और गुणस्थान उनके विशेष हैं। प्रश्न ४ : गुणस्थान की परिभाषा देकर उसे स्पष्ट कीजिए। उत्तर : आचार्य श्री नेमिचंद्र सिद्धान्त-चक्रवर्ती अपनी कृति गोम्मटसार जीवकाण्ड में गाथा ३ पूर्वार्ध द्वारा गुणस्थान के पर्यायवाची नाम बताते हुए अति संक्षेप में उसकी परिभाषा इसप्रकार देते हैं - - “संखेओ ओघोत्ति य, गुणसण्णा सा च मोहजोगभवा।
संक्षेप, ओघ इत्यादि गुण (गुणस्थान) के नाम हैं तथा वह मोह और योग के निमित्त से उत्पन्न होता है।"
संक्षेप, ओघ, सामान्य, संक्षिप्त, समास इत्यादि गुणस्थान के और विस्तार, आदेश, विशेष, विस्तृत, व्यास इत्यादि मार्गणास्थान के पर्यायवाची शब्द हैं। - इसी का विस्तार करते हुए आगे वे वहीं गाथा ८ द्वारा इसे इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"जेहिंदुलक्खिज्जंते, उदयादिसु संभवेहिं भावहिं।
जीवा ते गुणसण्णा, णिहिट्ठा सव्वदरसीहिं। (मोहनीय आदि कर्मों की) उदय आदि अवस्थाओं के होने पर होने वाले जिन भावों के द्वारा जीव लक्षित होते हैं/पहिचाने जाते हैं; उन्हें सर्वज्ञ भगवान गुणस्थान कहते हैं।" ___ मुख्यरूप से जीव के श्रद्धा और चारित्र गुण की विकृत दशा को मोह कहते हैं। इसमें निमित्त होनेवाला दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयरूप एक मोहनीय कर्म है। इस मोहनीय कर्म की उदय आदि रूप निमित्तता के समय जीव की अपनी तत्समय की योग्यता से गुणस्थानरूप दशाएँ होती रहती हैं। इनका विभाजन करते हुए आचार्य श्री नेमिचंद्र-सिद्धान्तचक्रवर्ती वहीं ११ से १४वी पर्यंत ४ गाथाओं द्वारा इनकी विशिष्ट विवक्षा स्पष्ट करते हैं। जिसका भाव इसप्रकार है
प्रारम्भिक चार गुणस्थान दर्शनमोहनीय की मुख्यता से, पाँचवें से बारहवें पर्यंत ८ गुणस्थान चारित्रमोहनीय की मुख्यता से और तेरहवाँचौदहवाँ – ये दो गुणस्थान योग की मुख्यता से विभक्त किए गए हैं। इस
- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/९८