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________________ इसी अपेक्षा प्रत्येक संसारी जीव पर्याय की अपेक्षा (मिथ्यात्व नामक) प्रथम गुणस्थान में तो अनादि से ही विद्यमान है। संज्ञी पंचेन्द्रिय होने पर अन्तरोन्मुखी पुरुषार्थ पूर्वक दोषों के अभावरूप में अन्य गुणस्थानों को प्राप्त हो जाता है। निष्कर्ष यह है कि गुणस्थान पुद्गल आदि पाँच अजीव द्रव्यों में तो होते ही नहीं; जीवद्रव्य और उसके गुणों में भी नहीं होते हैं; एकमात्र उसकी पर्याय में होते हैं। पर्याय में भी सर्व दोष-रहित, सर्व गुण-सम्पन्न सिद्ध भगवान के भी नहीं होते हैं। एकमात्र दोष-सम्पन्न संसारी जीवों की एकएक समयवर्ती पर्यायों में होते हैं। पर्यायों से अभिन्नता की अपेक्षा उन जीवों को देखने पर वे ही इन गुणस्थानों रूप हैं - ऐसा प्रतीत होता है। प्रश्न ३: गुणस्थानों का पाँच भावों के साथ संबंध बताइए। उत्तर :औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक - ये पाँच भाव जीव के स्व-तत्त्व/असाधारण भाव या विशेष भाव हैं। इनमें से प्रारम्भिक चार भाव जीव में उत्पन्न होनेवाले, कर्म सापेक्ष नैमित्तिक या औपाधिक भाव हैं। पाँचवाँ पारिणामिक भाव अनादिअनन्त, कर्मोपाधि निरपेक्ष, सदा एकरूप रहनेवाला सहज स्वभाव है। __ यहाँ 'गुण' शब्द द्वारा इन्हीं भावों का ग्रहण किया गया है। मात्र मोह और योग निमित्तक इन्हीं भावों के तारतम्य से होनेवाले जीव के भेदों को गुणस्थान कहते हैं। ___ सामान्यतया पहले, दूसरे और तीसरे गुणस्थानवर्ती जीवों के इन पाँच भावों में से पारिणामिक, औदयिक और क्षायोपशमिक ये तीन भाव होते हैं। नाना जीवों की अपेक्षा चौथे से ग्यारहवें गुणस्थान पर्यंत यथायोग्य पाँचों भाव हो सकते हैं। बारहवें गुणस्थान में औपशमिक के बिना चार भाव होते हैं। तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में औपशमिक और क्षायोपशमिक के बिना शेष तीन अर्थात् क्षायिक, औदयिक और पारिणामिक भाव हैं। गुणस्थानातीत सिद्ध भगवान के मात्र क्षायिक और पारिणामिक - ये दो ही भाव हैं। इसप्रकार गुणस्थानों का इन पाँच भावों के साथ व्याप्य-व्यापक संबंध है। पाँच भाव व्यापक हैं और गुणस्थान व्याप्य; पाँच भाव अंशी - चतुर्दश गुणस्थान/९७ -
SR No.007197
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherA B Jain Yuva Federation
Publication Year2008
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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