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अभाव में जीवन सुखी नहीं हो सकता है; अत: इनकी विशद जानकारी के लिए इन ग्रन्थों का गंभीर अध्ययन, मनन, चिंतन करना चाहिए। प्रश्न २ : 'गुणस्थान' शब्द का व्युत्पत्ति परक अर्थ देकर वे किसमें होते हैं ? – यह स्पष्ट कीजिए। उत्तर : आचार्य देवसेन अपनी ‘आलाप-पद्धति' नामक कृति में 'गुण' शब्द का व्युत्पत्ति परक अर्थ इसप्रकार लिखते हैं- "गुण्यते पृथक्क्रियते इति गुण: - जिससे (वस्तु) पृथक् की जाती है, उसे गुण कहते हैं।" वस्तु सामान्य गुणों के माध्यम से संख्या में तथा विशेष गुणों के माध्यम से जाति में विभक्त होती है अर्थात् सामान्य गुणों के माध्यम से अनन्त सत्तात्मक महा सत्ता या अनंतानंत द्रव्यों के समूहरूप विश्व की और विशेष गुणों के माध्यम से अवान्तर/स्वरूप सत्ता या जाति अपेक्षा छह द्रव्यों के समूहरूप विश्व की सिद्धि होती है। इसप्रकार गुण एक वस्तु से दूसरी वस्तु को पृथक् करने का कार्य करते हैं।
इसीव्युत्पत्ति के अनुसार गुणस्थान' शब्द का विश्लेषण करने पर यह फलित होता है कि जिन स्थानों/भावों/दशाओं से एक ही जीव पृथक्पृथक् प्रतीत होता है, उन्हें गुणस्थान कहते हैं। . ___यहाँगुणस्थान से तात्पर्य गुणों के स्थान से नहीं है। मोह और योग 'गुण' हैं भी नहीं; इन्हें गुण कहा भी नहीं जाता है; इनकी विद्यमानता सुखमय और सुख की कारण भी नहीं है; सभी इन मोह आदि को दुःखमय और दुःख का कारण मानकर नष्ट ही करना चाहते हैं; तथापि एक ही जीव इनसे पृथक्-पृथक् प्रतीत होने लगता है; अत: इन्हें गुणस्थान कहते हैं।
वास्तव में तो ये क्रमश: हीनतामय मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय, योगरूप दोषों के स्थान हैं; ज्ञानादि शाश्वत गुणों के स्थान नहीं हैं। यद्यपि गुणस्थानानुसार मिथ्यादर्शन आदि के अभाव में व्यक्त हुए सम्यक्त्व आदि गुण भी इनमें विद्यमान रहते हैं; तथापि मुख्यरूप से गुणस्थान के भेद इन सम्यक्त्व आदि गुणों (स्वाभाविक पर्यायों) के आधार पर नहीं होते हैं; उनके साथ रहने वाले अन्य विभावों/ दोषों के आधार पर होते हैं; अत: यहाँ 'गुण' शब्द 'पृथक्ता' वाची ही समझना चाहिए।
- तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २/९६ -