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. श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान जो मोती खोज रहा है वह जाता समुद्र के ही तल तक।
पाता है मोती कर में ले आता है सागर के तट तक || अपना चित्त लगावे, तो उसे स्वस्वरूप शुद्ध दर्शन और ज्ञान शीघ्र ही प्राप्त हो जाए। २०. ॐ ह्रीं ज्ञेयदृश्यपदार्थविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । ...
पूर्णानन्दस्वरूपोऽहम् ।
ताटंक घटपटादि पर ज्ञेय पदार्थो में ज्यों चित्त लगाता हैं । त्यों चिद्रूप प्राप्ति हित ज्ञानी उसमें चित्त लगाता है || परम शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति की रुचि अंतर में हो सम्पूर्ण ।
तो फिर उसकी प्राप्ति सहज है मिल जाता है वह परिपूर्ण ॥२०॥ ॐ ह्रीं तृतीय ध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(२१) उपायभूतमेवात्र शुद्धचिदरूपलब्धये ।
यत् किंचित्तत् प्रियं मेऽस्ति तदर्थित्वान्नचापरम् ॥२१॥ अर्थ-शुद्ध चिद्रूप की प्राप्ति के इच्छुक मनुष्य को सदा ऐसा विचार करते रहना चाहिये कि जो पदार्थ शुद्ध चिद्रूप की प्राप्ति में कारण है, वह मुद्रो प्रिय है । क्योंकि में शुद्ध चिद्रूप की प्राप्ति का अभिलाषी हूं और जो पदार्थ उसकी प्राप्ति में कारण नहीं है, उससे मेरा प्रेम भी नहीं है। २१. ॐ ह्रीं प्रियाप्रियविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
अनुपमस्वरूपोऽहम् । जो पदार्थ चिद्रूप प्राप्ति के कारण होवें होवें प्रिय । शेष पदार्थो से संबंध न रखना वे तो हैं अप्रिय ॥ श्रेष्ठ परम प्रिय निज चिद्रूप शुद्ध ही है इसी धरती पर।
यही मोक्ष का मार्ग यही है मोक्ष स्वरूपी शिव सुखकर॥२१॥ ॐ ह्रीं तृतीय ध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
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