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८८ तत्त्वज्ञान तरंगिणी तृतीय अध्याय पूजन आत्मा को पाना हो तो फिर इसके तल तक जाना होगा। आत्मा को पाते ही तुमको तत्क्षण ऊपर आना होगा |
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(२२) चिद्पः केवलः शुद्ध आनंदात्मेत्यहं स्मरे ।
मुक्त्यै सर्वज्ञोपदेशः श्लोकार्द्धन निरूपितः ॥२२॥ अर्थ- यह चिद्रूप अन्य द्रव्यों के संसर्ग से रहित केवल हैं, शुद्ध है और आनन्द स्वरूप है, ऐसा मैं स्मरण करता हूँ। क्योंकि जो यह आधे श्लोक में कहा गया भगवान सर्वज्ञ का उपदेश हैं वह ही मोक्ष का कारण है। २२. ॐ ह्रीं केवलशुद्धानन्दात्मस्वरूपाय नमः ।
चिद्रूपोऽहम् । यह चिद्रूप अन्य द्रव्यों के संसर्गो से रहित सदा । शुद्ध बुद्ध आनंद स्वरूपी ऐसा निर्मल भाव सदा ॥ एक शुद्ध चिद्रूप प्राप्ति के लिए हृदय को सहज बना ।
ऊर्ध्व मध्य पाताल लोक में सर्वोत्तम धन यही सदा ॥२२॥ ॐ ह्रीं तृतीय ध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(२३) वहिश्चितः पुरः शुद्धचिदपाख्यानकं वृथा ।
अंधस्य नर्तनं गानं बधिसरस्य यथा अवि ||२३|| अर्थ- जिस प्रकार अन्धे के सामने नाचना और बहिरे के सामने गीत गाना व्यर्थ है। उसी प्रकार बहिरात्मा के सामने शुद्धचिद्रूप की कथा भी कार्यकारी नहीं है। परन्तु जिस प्रकार भूखे के लिये अन्न, प्यासे के लिये जल हितकारी है । २३. ॐ ह्रीं बहिरात्ममादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
शाश्वतपरमात्मस्वरूपोऽहम ।
वीरछंद ज्यों अंधे को नृत्य और बहिरे को गीत सुनाना व्यर्थ । त्यों बहिरात्मा को होती चिद्रूप शुद्ध की कथनी व्यर्थ ॥