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तत्त्वज्ञान तरंगिणी तृतीय अध्याय पूजन यदि मोह क्षीण होना है तो फिर करो कषायों को तुम जय। जय बिना कषायें किये नहीं होता है यथाख्यात शिवमय॥
ताटंक जब तक परम शुद्ध चिद्रूप ध्यान उर सिद्ध नहीं होगा । तब तक कारण रूप क्रिया में लीन रहेगा श्रम होगा | ध्यान सिद्ध होने पर ऐसी सभी क्रियायें तू तज दे ।
एक मात्र चिद्रूप शुद्ध को प्रतिपल प्रतिक्षण ही भज ले ॥१८॥ ॐ ह्रीं तृतीय ध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१९) अंगस्यावयवैरगंमंगुल्याद्यैः परामृशेत ।
मत्याद्यैः शुद्धचिद्रूपावयवैस्तं तथा स्मरेत् ॥१९॥ अर्थ- जिस प्रकार शरीर के अवयव अंगुली आदि से शरीर का स्पर्श किया जाता है। उसी प्रकार शुद्धचिद्रूप के अवयव जो मतिज्ञान आदि में हैं, उनसे उसका स्मरण करना चाहिये। १९. ॐ ह्रीं मत्यादिज्ञानपर्यायविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
ज्ञानसूर्यस्वरूपोऽहम् ।
वीरछंद जो शरीर के अवयव हैं उनसे शरीर होता स्पर्श । उसी भांति मति ज्ञानादिक चिद्रूप शुद्ध अवयव कर पर्श॥ जब चिद्रूप शुद्ध स्पर्श करेगा तो होगा आनंद ।
केवल ज्ञान प्राप्त होगा फिर होगा उर में परमानंद ॥१९॥ ॐ ह्रीं तृतीय ध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(२०) ज्ञेये दृश्ये यथा स्वे स्वे चित्तं ज्ञातरि दृष्टरि ।
दद्याच्चेन्ना तथा विदेत्पर ज्ञानं च दर्शनम् ॥२०॥ अर्थ- मनुष्य जिस प्रकार घट पट आदि ज्ञेय और दृश्य पदार्थो में अपने चित्त को लगाता है। उसी प्रकार यदि वह शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति के लिये ज्ञाता और दृष्टा आत्मा में भी