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श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान है अमृत कुंभ मिथ्या जिन को वह करता है प्रतिक्रमण नहीं । क्यों करे प्रतिक्रमण विष रूपी जब किया कभी अतिक्रमण नहीं।
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(१४) चक्रींद्रयोः सदसि संस्थितगोः कृपा स्यातद्भार्ययोरतिगुणान्वितयोघृणा च । सर्वोत्तमेन्द्रियसुखस्मरणेऽतिकष्टं
यस्यो द्धचेतसि स तत्वविदां वरिष्ठः ॥१४॥ अर्थ- जिन मनुष्य के पवित्र ह्रदय में सभा में सिंहासन पर विराजमान हुए चक्रवर्ती और इन्द्र के ऊपर दया है। शोभा में रति की तुलना करने वाली इन्द्रिणी और चक्रवर्ती की पटरानी पर घृणा है। और जिसे सर्वोत्तम इन्द्रियों के सुखों का स्मरण होते ही अति कष्ट होता है वह तत्त्वज्ञानियों में उत्तम तत्वज्ञानी कहा जाता है । १४. ॐ ह्रीं सर्वोत्तमेन्द्रियसुखस्मरणरहितचिद्रूपाय नमः ।
सहजानन्दस्वरूपोऽहम् । चक्रवर्ती इन्द्रिादिक पर है दया भाव जिनके मन में । इन्द्राणी या महारानी भी हो तो घृणा भाव मन में || सर्वोत्तम इन्द्रिय सुख में भी होता है जिन को बहु कष्ट। वे ही तत्त्व ज्ञानियों में उत्तम हैं उन्हें न होता कष्ट || पाते हैं चिद्रूप शुद्ध की महिमा वे ही अंतर में ।
ध्याते हैं चिद्रूप शुद्ध को सदा सदा अभ्यंतर में ॥१४॥ ॐ ह्रीं तृतीय ध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१५) रम्यं वल्कलपर्णमंदिरकरीरं कांजिकं रामठंलोहं ग्रावनिषादकुश्रुतमटेद यावन्न यात्यंवरम् । सौधं कल्पतरुं सुधां च तुहिनं स्वर्ण मणिं पंचमं
जैनीवाचमहो तथेन्द्रियभवं सौख्यं निजात्मोद्भवम् ॥१५॥ अर्थ- जब तक मनुष्य को उत्तमोत्तम वस्त्र महल कल्पृक्ष अमृत कपूर सोना स्वर जिनेन्द्र भगवान की वाणी और आत्मीक सुख प्राप्त नहीं होते तभी तक वह वक्कल वन पत्तों
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