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तत्त्वज्ञान तरंगिणी तृतीय अध्याय पूजन उपयोग शुभाशुभ का व्यापार नहीं करता है पल भर भी।
उपयोग शुद्धव्यापार सदा करता है निजमय सुखकर ही॥ का घर करीर कांजी हींग लोहा पत्थर निषादस्वर कुशास्त्र और इंद्रिय जन्य सुख को उत्तम और कार्यकारी समझता है। परन्तु उत्तम वस्त्र आदि के प्राप्त होते ही उसकी वक्कल आदि में सर्वथा घृणा हो जाती है उनको वह जरा भी मनोहर नहीं मानता । १५. ॐ ह्रीं कल्पतरुसौधादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
अवबोधसौधस्वरूपोऽहम् ।
वीरछंद जब तक नीची दशा तभी तक पर पदार्थ में है अनुराग। रत्न वस्त्र सोना चांदी में करता है सदैव अनुराग || जब आता है उच्च दशा में तज देता खोटा अनुराग।
एक शुद्ध चिद्रूप भावना पाकर करता कभी न राग ॥१५॥ ॐ ह्रीं तृतीय ध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१६) केचिद् राजादिवार्ता विषयरतिकलाकीतिरै प्राप्तिचिंतासंतानोदभूत्युपायं पशुनगविगवां पालनं चान्यसेवाम् । स्वापक्रीडौषधादीन् सुरनरमनसां रंजनं देहपोषं
कुर्वन्तोऽस्यंति कालं जगति च विरलाःस्वस्वरूपोपलब्धिम्॥१६॥ अर्थ- संसार में अनेक मनुष्य राजा आदि के गुण गानकर काल व्यतीत करते हैं। कई एक विषय रति कला कीर्ति और धन की चिन्ता में समय बिताते हैं। और बहुत से संतान की उत्पत्ति का उपाय, पशु वृक्ष पक्षी गौ बैल आदि का पालन अन्य की सेवा, शयन, क्रीड़ा, औषधि आदि का सेवन; देव मनुष्यों के मन का रंजन और शरीर का पोषण करते करते अपनी समस्त आयु के काल को समाप्त कर देते हैं। इसलिये जिनका समय स्वस्वरूप शुद्ध चिदरूप की प्राप्ति में व्यतीत हों, ऐसे मनुष्य संसार में विरले ही हैं। १६. ॐ ह्रीं शयनक्रीडौषधादिदेहपोषणरूपविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
स्वस्वरूपोऽहम् । भव चिन्ता में समय गंवाता करता राजादिक गुणगान । तन पोषण में बीत रहे क्षण किन्तु नहीं है अपना ध्यान॥