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तत्त्वज्ञान तरंगिणी तृतीय अध्याय पूजन है दुर्दमनीय मोह का क्षय सम्यक् दर्शन का धातक है ।
संसार मार्ग का वर्धक है यह मोक्ष मार्ग में पातक है || ५. ॐ ह्रीं निस्पृहशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
निरपेक्षोऽहम् । जो ज्ञानी है शीघ्र प्राप्त करते हैं हो सब से निस्पृह । वन पर्वत में एकाकी बन रहते त्याग सर्व परिग्रह || निर्जन सरिता पुलिन गुफाओं वृक्षों के कोटर में वास ।
उनको ही चिद्रूप शुद्ध पाने का होता है उल्लास ॥५॥ ॐ ह्रीं तृतीय ध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(६) स्वल्पकार्यकृती चिंता महावजायते ध्रुवम् |
मुनीनां शुद्धचिद्रूपध्यानपर्वतभंजने ॥६॥ अर्थ- जिस प्रकार वज्र पर्वत को चूर्ण चूर्ण कर देता है। उसी प्रकार जो मनुष्य शुद्ध चिद्रूप की चिंता करने वाला है वह यदि अन्य किसी थोड़े से भी कार्य के लिये जरा भी चिंता कर बैठता है, तो शुद्ध चिद्रूप के ध्यान से सर्वथा विचलित हो जाता है । ६. ॐ ह्रीं चिन्चारहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
निश्चिन्तस्वरूपोऽहम् ।
वीरछंद जैसे वज्र बड़े पर्वत को भी कर देता क्षण में चूर्ण । त्यों चिद्रूप शुद्ध का चिन्तन भव दुख करता शीघ्र विचूर्ण॥ ध्यान शुद्ध चिद्रूप सुदृढ़ से जो भी विचलित हो जाता ।
भव अटवी में पुनः भटकता परभावों में बह जाता ॥६॥ ॐ ह्रीं तृतीय ध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(७) ___शुद्ध चिद्रूपसद्धध्यानभानुरत्यंतनिर्मलः ।
जनसंगतिसंजातविकल्पाब्दस्तिरोभवेत् ॥७॥ -अर्थ- यह शुद्धचिद्प का ध्यान रूपी सूर्य महानिर्मल और दैदीप्यमान हैं। यदि इस