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७७ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान नैराश्य गगन से बहुत दूर आशा कानभमंडल महान । मिथ्यात्व आदि से विमुख सदा करता है मोह विजय महान ||
अगर इष्ट बाधक है तो तुम उसे छोड़ दो तत्क्षण ही । अगर अनिष्ट तनिक भी साधक उसे संग लो तत्क्षण ही ॥ जैसे भी हो तुम चिद्रूप शुद्ध की प्राप्ति करो तत्काल ।
एक मात्र हो लक्ष्य ह्रदय में परम शुद्ध चिद्रूप विशाल ॥३॥ ॐ ह्रीं तृतीय ध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(४) मुंचेतत्समाश्रयेच्छुद्धचिंदरूपस्मरणेऽहितम् । _ हितं सुधीः प्रयत्नेन द्रव्यादिकचतुष्टयम् ॥४॥ अर्थ- द्रव्य.क्षेत्र काल भाव रूप पदार्थों में जो पदार्थ शुद्ध चिद्रूप के स्मरण करने में हितकारी न हो, उसे छोड़ देना चहिये और जो उसकी प्राप्ति में हितकारी हो, उसका बड़े प्रयत्न से आश्रय करना चाहिये । ४. ॐ ह्रीं द्रव्यक्षेत्रकालभावरूपविकल्परहितनिजचिद्रूपाय नमः ।
परमदेवस्वरूपोऽहम् । द्रव्य क्षेत्र अरु काल भाव सब इनको जानो भली प्रकार। जो बाधक हो उनको छोड़ो कर चिद्रूप शुद्ध सत्कार || जो हितकर है उसका आश्रय लेना बुद्धि पूर्वक आप |
एक शुद्ध चिद्रूप स्मरण करके नाशो भव संताप ॥४॥ ॐ ह्रीं तृतीय ध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
संगं विमुच्य विजने संति गिरिगह्वरे ।
शुद्ध चिद्रूपसंप्राप्त्यै शानिनोऽन्यत्र निस्पृहाः ॥५॥ अर्थ- जो मनुष्य ज्ञानी है हित अहित का पूर्ण ज्ञान रखते हैं, वे शुद्ध चिद्रूप की प्राप्ति के लिये अन्य समस्त पदार्थो में सर्वथा निस्पृह हो समस्त परिग्रह का त्याग कर देते हैं और एकान्त स्थान पर्वत गुफाओं में जाकर रहते हैं।