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७६ तत्त्वज्ञान तरंगिणी तृतीय अध्याय पूजन मिथ्यात्व तथा अविरति प्रमाद अथवा कषाय अरु योग सभी। ये पांचों ही प्रत्यय बाधक है मोक्ष सौख्य के घातक ही ॥
(२)
देवं श्रुतं गुरुं तीर्थं भदंतं च तदाकृतिम् ।
शुद्धचिद्रूपसद्ध्यानहेतुत्वाद् भजते सुधीः ॥२॥ अर्थ-देव शास्त्र गुरु तीर्थ और मुनि तथा इन सबकी प्रतिमा शुद्ध चिद्रूप के ध्यान में कारण हैं। बिना इनकी पूजा सेवा किये शुद्धचिद्रूप की ओर ध्यान जाना सर्वथा दुःसाध्यहै इसलिये शुद्ध चिद्रूप की प्राप्ति के अभिलाषी विद्वान् अवश्य देव आदि की सेवा उपासना करते हैं। २. ॐ ह्रीं ध्यानहेतुरूपदेवश्रुतादिविकल्परहितनिजचिद्रूपाय नमः ।
निर्विकल्पोऽहम् । देव शास्त्र गुरु तीर्थ वन्दना मुनियों का करना गुणगान। ये सब कारण परम शुद्ध चिद्रूप ध्यान में श्रेष्ठ महान || देव धर्म गुरु स्वाध्याय संयम तप तीर्थयात्रा दान ।
प्रथम भूमिका में ही कारण हैं ये षट है कर्त्तव्य प्रधान ॥२॥ ॐ ह्रीं तृतीय ध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि ।
(३) अनिष्टान् खहदामर्थानिष्टानपि भजेत्यजेच् ।
शुद्धचिद्रूपसद्ध्याने सुधीर्हेतूनहेतुकान् ॥३॥ अर्थ- शुद्धचिद्रूप के ध्यान करे समय इंद्रिय और मन के अनिष्ट भी पदार्थ यदि उसकी प्राप्ति में कारण स्वरूप पडे तो उनका आश्रय कर लेना चाहिये। और इंद्रिय मन को इष्ट होने पर भी यदि वे उसकी प्राप्ति में कारण न पड़े बाधक पड़े तो उन्हें सर्वथा छोड़ देना चाहिए। ३. ॐ ह्रीं इष्टानिष्टेन्द्रियविषयविकल्परहितनिजचिद्रूपाय नमः ।
साम्यचिद्रूपोऽहम् । इष्ट अनिष्ट पदार्थ जगत के प्रिय अप्रिय जो भी पाओ। जो चिद्रूप प्राप्ति में कारण हो उसको ही अपनाओ ||