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७५ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान सवर और निर्जरा दोनों सादि सान्त हैं यह जानो । सादि अनंत स्वमोक्ष तत्व है दृढ़ श्रद्धा उर में आनो ||
अर्ध्यावलि
तृतीय अध्याय शुद्ध चिद्रूप कगे प्राप्ति के उपायों का वर्णन
(१) जिनेशस्य स्नानात् स्तुतियजनजपान्मंदिरा_विधाना: च्चतुर्धादानाद्वाध्ययनखजयतोध्यानतः संयमाच्च । व्रताच्छीलातीर्थादिकगमनविधेः शांतिमुख्यप्रधर्मात्,
क्रमाच्चिद्रूपाप्ति भवति जगति ये वांछकास्तस्य तेषाम् ||१|| अर्थ- जो मनुष्य शुद्ध चिद्रूप की प्राप्ति करना चाहते हैं उन्हें जिनेन्द्र का अभिषेक करने से उनकी स्तुति पूजा जप करने से, मंदिर की पूजा और उसके निर्माण से आहार औषध अभय और शास्त्र चार प्रकार के दान देने से शास्त्रों के अध्ययन से इंद्रियों के विजय से ध्यान से संयम से व्रत से शील से तीर्थ आदि में गमन करने से और उत्तम क्षमा आदि धर्मो के धारने से शुद्ध चिद्रूप की प्राप्ति होती है । १. ॐ ह्रीं दानपूजादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
अतीन्द्रियानंदस्वरूपोऽहम् ।
वीरछंद जो मनुष्य चिद्रूप शुद्ध की प्राप्ति चाहते कर लें प्राप्त । जिन अभिषेक जिनस्तुति पूजा चार दान दें ध्याएँ आप्त॥ शास्त्रों का अध्ययन करें नित इन्द्रिय विजयी बनें समर्थ। संयम शील तीर्थ तप ध्यानादिक में लीन रहें है अर्थ ॥ आत्म धर्म धारण करने से क्रमशः होता है सद्धर्म ।
शुद्ध परम चिद्रूप प्राप्ति के ये सब साधक है सत्कर्म ॥१॥ ॐ ह्रीं तृतीय ध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।