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श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान
उत्पाद ध्रौव्यव्यय युक्त सदा सत्ता से युक्त आत्मा है । है दर्शन ज्ञान स्वरूप शुद्ध परिणमन सहित यह आत्मा हैं ||
पर स्त्री पुत्र आदि के संसर्ग से उत्पन्न हुए विकल्परूपी मेघ का पर्दा पड़ जायगा तो यह ढीक ही जायगा ।
७. ॐ ह्रीं महानिर्मलज्ञानभानुस्वरूपाय नमः ।
चैन्यभास्करोऽहम् | ताटंक
परम शुद्ध चिद्रूप ध्यान रवि है दैदीप्यमान निर्मल । किन्तु विकल्पों के बादल ढक देते दिखता नहीं विमल ॥ स्त्री पुत्र धनादिक चिन्ता महा विघ्न करने वाली । इनकी चिन्ता छोड़ स्वयं की चिन्ता कर शिव सुख वाली ॥ जो निज हित की चिन्ता करता वह पा लेता है सत्पथ | जो पर की चिन्ता करते हैं पाते हैं संसार विपथ ॥७॥
ॐ ह्रीं तृतीय ध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।
(८)
अभव्ये शुद्धचिद्रूपध्यानस्य नोद्भवो भवेत् ।
वंध्यायां किल पुत्रस्य विषाणस्य खरे यथा ॥८॥
अर्थ- जिस प्रकार बांझ के पुत्र नहीं होता और गधे के सींग नहीं होते उसी प्रकार अभव्य के शुद्ध चिद्रूप का ध्यान कदापि नहीं हो सकता ।
८. ॐ ह्रीं भव्याभव्यविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
भगवानस्वरूपोहम् ।
नहीं बांझ को सुत होता है सींग न गर्दभ को होता । उस प्रकार से अभव्य को चिद्रूप ध्यान भी ना होता ॥ ज्यों ज्वर रोगी को मीठा पय भी अति कड़वा लगता है। त्यों अभव्य को धर्म कथन विपरीत सदा ही लगता है ॥ तू तो निकट भव्य है चेतन शीघ्र जंगा ले निज पुरुषार्थ । एक बार दृढ़ निश्चय कर उर में चिद्रूप शुद्ध भूतार्थ ॥८॥