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- श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान संवर तथा निर्जरा सुख के कारण उपादेय इकदेश । मोक्ष पूर्ण सुख रूप अतः है उपादेय सर्वथा हमेश || मेरा साहस अतुल है प्रभु आत्म पुरुषार्थ सें है युक्त । शून्य पर द्रव्य से हैं यह द्रव्य पर से सदा ही मुक्त ॥ शुद्ध चैतन्य का सागर अनंतों गुण सहित निरुपम । वासना है नहीं उर में शुद्ध भावों में हूँ सक्षम || शुद्ध चिद्रूप में चेतन स्वयं को यदि लगाएगा । . शुद्ध चिद्रूप का आनंद फिर उर में समाएगा ॥ फागनी पूर्णिमा का पति इन्द्र धनुषी हैं गुण सारे । पूर्ण हूँ साम्यभावों से ज्ञान दर्शन ह्रदय धारे ॥
. ताटंक जगमग जगमग दीप जगाओ झिलमिल झिलमिल ज्योति जगे। महामोह मिथ्यात्व तिमिर सम्पूर्ण सदा को त्वरित भगे | निज स्वभाव परिणति जब आए राग द्वेष के भाव हरे । गृह विभाव परिणति सागर तल में जाकर विश्राम करे ॥ निज स्वभाव की पावन धुन में यह निजात्मा सदा लगे । परम अनंत चतुष्टय बोला शुद्ध संयमित भाव सगे | निज चैतन्य शक्ति जागी है दुख सारे क्षय करने को ।
गुण अनंत भी मिले मार्ग में कर्म अष्ट संपूर्ण भगे | ॐ ह्रीं द्वितीय अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय जयमाला पूर्णाऱ्या नि. ।
आशीर्वाद परम शुद्ध चिद्रूप की महिमा अपरंपार । जो चिद्रूप संवारते हो जाते भव पार ॥
इत्याशीर्वाद :
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