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तत्त्वज्ञान तरंगिणी द्वितीय अध्याय पूजन आस्रव बंध हेय हैं पूरे तत्व अजीव सर्वथा ज्ञेय । जीव तत्व आश्रय से सुख है अतः यही है उत्तम ध्येय ॥
ॐ ह्रीं भट्टारकज्ञानभूषणाविरचितायां तत्त्वज्ञानतरंगिण्यां शुद्ध चिद्रूपध्यानोत्साहसंपादक द्वितीयाध्याये ज्ञानार्णवस्वरूपाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
महाअर्ध्य सरसी
भेद ज्ञान की वीणा बाजी स्वपर विवेक जगा । जान बचाकर महा दुष्ट मिथ्यात्व तुरंत भगा ॥ सप्त तत्त्व श्रद्धान पूर्वक तत्त्व प्रतीति हुई । सम्यक् दर्शन पाया उर में पाया मीत सगा ॥ शुद्ध आत्मा में अनंत गुण निर्मल दरशाए । मुक्ति प्राप्त के लिए आत्मा निज में चलने लगा ॥ निज उपवन को निरख निरख हर्षित है चेतनराज । अनुभव रस से अपना चेतन अपने आप पगा ॥ है एकत्व विभक्त आत्मा दर्शन ज्ञान स्वरूप । अपना शाश्वत सुख पाने को शुद्ध भाव उमगा ॥ परम शुद्ध चिद्रूप लक्ष्य में जो भी लेता है । वह न भूल कर निज स्वभाव से तिलभर कभी चिगा ॥ दोहा महा अर्घ्य अर्पण करूं देखूँ शुद्ध स्वरूप I परम शुद्ध चिद्रूप ही है मेरा निज रूप || ॐ ह्रीं द्वितीय अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय महाअर्घ्य .नि. ।
जयमाला
छंद विधाता
शुद्ध चिद्रूप के ही ध्यान का उत्साह अब जागे । मोह रागादि भावों का सैन्य दल प्रभु त्वरित भागे ॥ ज्ञान की ही तरंगें हों तत्त्व का ज्ञान हो उर में । राग से दूर हो जाऊँ गमन हो शुद्ध निजपुर में ||