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श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान कर्मो का आना रुक जाना ही कहलाता संवर तत्त्व । यह सातों ही तत्व जानने योग्य आश्रय योग्य स्वतत्त्व ||
(२४)
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मग्ना ये शुद्धचिद्रूपे ज्ञानिनो ज्ञानिनो पि ये ।
प्रमादिनः स्मृतो तस्य तेपि मग्ना विधेर्वशात् ॥२४॥ अर्थ- जो शुद्धचिद्रूप के ज्ञाता है वे भी उसमें मग्न है। और जो उसके ज्ञाना होने पर भी उसके स्मरण करने में प्रमाद करनेवाले है वे भी उसमें मग्न हैं। अर्थात् स्मृति न होने पर भी उन्हें शुद्धचिदरूप का ज्ञान ही आनन्द प्रदान करनेवाला है । २४. ॐ ह्रीं प्रमादरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
निरालसोऽहम् । जो ज्ञाता चिद्रूप शुद्ध रत उसमें ही रहते हैं मग्न । स्मृति निर्बल हो तो भी वे ज्ञानानंद पाते हो मग्न || परम शुद्ध चिद्रूप ज्ञान ही तो आनंद प्रदाता है ।
भरा हुआ है सुख समुद्र इसमें यह शिवसुख दाता है ॥२४॥ ॐ ह्रीं द्वितीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(२५) सप्तधातुमय देहं मलमूत्रादिभाजनम् ।
पूज्यं कुरु परेषां हि शुद्धचिद्रूपचिन्तनात् ॥२५॥ अर्थ- यह शरीर रक्त वीर्य मज्जा आदि सात धातु स्वरूप है । मलमूत्र आदि अपवित्र पदार्थो का घर है; इसलिये उत्तम पुरुषों को चाहिये कि वे इस निकृष्ट और अपवित्र शरीर को भी शुद्ध चिद्रूप की चिंता से दूसरों के द्वारा पूज्य और पवित्र बनावें । २५. ॐ ह्रीं मलमूत्रादिभाजनरूपदेहरहितचिद्रूपाय नमः ।
पवित्रचिद्रूपोऽहम् ।। देह महा अपवित्र अशुद्ध पदार्थो से होती उत्पन्न । किन्तु शुद्ध चिद्रूप ध्यान से हो पवित्रता से सम्पन्न ॥ परम पवित्र ज्ञान गुण मंडित परम शुद्ध चिद्रूप अमंद । इसके ध्यान मात्र से होता क्षय आठों कर्मो का द्वंद ॥२५॥