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* तत्त्वज्ञान तरंगिणी द्वितीय अध्याय पूजन राग द्वेष मोहादि विकारों का आना ही आस्रव तत्त्व ।
रागादिक का आत्मा में रुक जाना ही है बंध जु तत्त्व ॥ अर्थ- जो महानुभाव शुद्धचिद्रूप के धारक है उसके ध्यान में अनुरक्त हैं उनके चरणों से स्पर्श की हुई भूमि तीर्थ अनेक मनुष्यों को संसार से तारनेवाली हो जाती है, उनके नाम के लेने से समस्त पापों का नाश हो जाता है और अनेक देव उनके दास हो जाते
२२. ॐ ह्रीं अघच-रहितनिरघचिद्रूपाय नमः ।
ज्ञानपुअस्वरूपोऽहम् ।
वीरछंद जो चिद्रूप शुद्ध के धारक उसमें ही रहते अनुरक्त । उनकी चरण धूल भी हो तो तीर्थ समान महान पवित्र ॥ नाम मात्र उनका लेने से पापों का हो जाता नाश ।
देव चरण में आ जाते हैं हो जाते हैं उनके दास ॥२२॥ ॐ ह्रीं द्वितीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(२३) शुद्धस्य चित्स्वरूपस्य शुद्धोन्योऽन्यस्य चिंतनात् ।
लोहं लोहाद् भवेत्पात्रं सौवर्ण च सुवर्णतः ॥२३॥ अर्थ- जिस प्रकार लोह से लोहे का पात्र स्वर्ण से स्वर्ण का पात्र बनता है उसी प्रकार शुद्ध चिद्रूप की चिंता करने से आत्मा शुद्ध चिद्रूप के ध्यान से शुद्ध और अशुद्ध चिद्रूप के ध्यान से अशुद्ध होता है। २३. ॐ ह्रीं ज्ञानकंचनस्वरूपाय नमः ।
ज्ञानभूषणस्वरूपोऽहम् । जिस प्रकार लोहे से लोहा सोने से सोने का पात्र । उस प्रकार चिद्रूप शुद्ध से प्राणी हो जाता सत्पात्र || यदि अशुद्ध का ध्यान करेगा तो अशुद्धि ही पाएगा ।
बिना शुद्ध चिद्रूप ध्यान के शुद्ध नहीं हो पाएगा ॥२३॥ ॐ ह्रीं द्वितीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
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