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५२ तत्त्वज्ञान तरंगिणी द्वितीय अध्याय पूजन सदा वस्तु स्थिति न एक सी रहती परिवर्तन होता । इसी ज्ञान से पर द्रव्यों के प्रति न राग द्वेष होता ॥ चिद्रूप शुद्ध की महिमा अंतर में प्रभो सजाऊँ ।
ध्रुव धाम लक्ष्य में लेकर अनुभव के वाद्य बजाऊँ ॥ ॐ ह्रीं द्वितीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय संसारताप विनाशनाय चंदनं नि. ।
जब तक है भोग वासना तब तक ही जीवन क्षत है । अपना स्वभाव ही अक्षय पद दाता है अक्षत है ॥ चिद्रूप शुद्ध की महिमा अंतर में प्रभो सजाऊँ ।
ध्रुव धाम लक्ष्य में लेकर अनुभव के वाद्य बजाऊँ || ॐ ह्रीं द्वितीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतं नि ।
जब तक है काम वासना तब तक ही मैं पीड़ित हूँ | निष्काम भाव जगते ही अपने भीतर सीमित हूँ ॥ चिद्रूप शुद्ध की महिमा अंतर में प्रभो सजाऊँ ।
ध्रुव धाम लक्ष्य में लेकर अनुभव के वाद्य बजाऊँ || ॐ ह्रीं द्वितीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय कामबाण विनाशनाय पुष्पं नि. ।
तब तक है क्षुधारोग उर मैं तृप्त नहीं हो सकता । अनुभव नैवेद्य मिलें तो क्षय क्षुधा रोग हो सकता ॥ चिद्रूप शुद्ध की महिमा अंतर में प्रभो सजाऊँ ।
ध्रुव धाम लक्ष्य में लेकर अनुभव के वाद्य बजाऊँ ॥ ॐ ह्रीं द्वितीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं नि. ।
जब तक मिथ्या भ्रम तम है तब तक ही है अंधियारा | जब ज्ञान दीप जलता है तब होता है उजियारा ॥