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५३ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान पर्यायें प्रतिसमय बदलती रहती हैं होता यह ज्ञान । क्षय पर्याय मूढ़ता होती हो जाता है सम्यक् ज्ञान || चिद्रूप शुद्ध की महिमा अंतर में प्रभो सजाऊँ ।
ध्रुव धाम लक्ष्य में लेकर अनुभव के वाद्य बजाऊँ ॥ ॐ ह्रीं द्वितीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय मोहन्धकार विनाशनाय दीपं नि. ।
जब तक दुर्ध्यान ह्रदय में तब तक कर्मो का बंधन । जब शुक्ल ध्यान होता है तब क्षय होता भव क्रन्दन || चिद्रूप शुद्ध की महिमा अंतर में प्रभो सजाऊँ ।
ध्रुव धाम लक्ष्य में लेकर अनुभव के वाद्य बजाऊँ ॥ ॐ ह्रीं द्वितीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अष्टकर्म विनाशनाय धूपं नि. ।
तब तक विष फल खाऊंगा तब तक ही दुख पाऊंगा । जब महामोक्ष फल पाऊं तब शाश्वत सुख पाऊंगो। || चिद्रूप शुद्ध की महिमा अंतर में प्रभो सजाऊँ ।
ध्रुव धाम लक्ष्य में लेकर अनुभव के वाद्य बजाऊँ ॥ ॐ ह्रीं द्वितीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय मोक्षफल प्राप्ताय फलं नि ।
अावलि सदा चढ़ाई भवं वर्धक मैंने स्वामी । पदवी अनर्घ्य पाने को आया हूँ अन्तर्यामी ॥ चिद्रूप शुद्ध की महिमा अंतर में प्रभो सजाऊँ ।
ध्रुव धाम लक्ष्य में लेकर अनुभव के वाद्य बजाऊँ ॥ ॐ ह्रीं द्वितीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अनर्घ्य पद प्राप्तायअर्घ्य नि. ।
अर्ध्यावलि
द्वितीय अधिकार शुद्ध चिद्रूप के ध्यान का प्रोत्साहन