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श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान
द्रव्य प्रयोजन भूत क्रिया अपनी अपनी करते प्रत्येक । अतः जगत का कोई द्रव्य निरर्थक नहीं जान लो एक ॥
१६. ॐ ह्रीं अचिन्त्यस्वरूपाय नमः ।
एकोऽहम् । वीरछंद
चिदानंद चैतन्य आत्मा का स्वरूप है विविध प्रकार । निज स्वभाव से एक रूप है इसकी महिमा अपरम्पार ॥ जो जकड़े हैं मोह श्रृंखला से वे नहीं जान पाते । जिनने जीता मोह सर्वथा वे ही इसे जान पाते ॥ इसे जानने की विधि केवल तत्त्व ज्ञान में गर्भित है ।
जो चिद्रूप शुद्ध अभिलाषी उसके उर में शोभित है ॥१६॥ ॐ ह्रीं प्रथम अध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१७) चिदरूपोऽयमनाद्यंतः स्थित्युत्पतित्तव्ययात्मकः ।
कर्मणाऽस्ति युतोऽशुद्धः शुद्धः कर्मविमोचनात् ॥१७॥
अर्थ- यह चिदानंद स्वरूप आत्मा अनादि अनंत है उत्पाद व्यय और धौव्य तीनों अवस्था स्वरूप है। जब तक कर्मों से युक्त बना रहता है तब तक अशुद्ध और जिस समय कर्मो से सर्वथा रहित हो जाता है उस समय शुद्ध हो जाता है । १७. ॐ ह्रीं अनाद्यनन्तचिद्रूपायस्वरूपाय नमः ।
स्वतन्त्रोऽहम् । वीछंद
ये ही आत्मा चिदानंद मय है उत्पाद ध्रौव्य व्यय युक्त | एक अनादि अनंत शाश्वत फिर भी अरे कर्म संयुक्त ॥ जब तक कर्म दोष है तब तक यह अशुद्ध कहलाता है। कर्म रहित जब हो जाता है तभी शुद्ध हो जाता है ॥ पर में परिवर्तन करने का लघु विचार भी है अज्ञान । इसको छोड़े बिना न होता है चेतन को सम्यक् ज्ञान ॥