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तत्त्वज्ञान तरंगिणी प्रथम अध्याय पूजन अतः नहीं अभिमान मुझे है हीन भाव का नाश हुआ । वस्तु स्वरूप ज्ञान करते ही उर में विमल प्रकाश हुआ। जड़ चेतन हों सूक्ष्म स्थूल विकृति हों या वे होवें नष्ट। बुरे भले कैसे भी होवें कोई न मुझसे हैं उत्कृष्ट || मैं ही तो चिद्रूप शुद्ध हूं मैं ही तो आनंद स्वरूप ।
सकल वेदनाओं से विरहित मेरा तो है शुद्ध स्वरूप ॥१४॥ ॐ ह्रीं प्रथम अध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१५) विक्रियाभिरशेषाभिरङ्गकर्मप्रसूतिभिः ।
मुक्तो योऽसौ चिदानन्दो युक्तोऽनन्तदृगादिभिः ॥१५॥ अर्थ- यह चिदानंद शरीर और कर्मो के समस्त विकारों से रहित है और अनंत दर्शन अनंत ज्ञान आदि आत्मिक गुणों से संयुक्त है । १५. ॐ ह्रीं अशेषविकाररहितनिर्विकारस्वरूपाय नमः ।
अनन्तगुणस्वरूपोऽहम् ।
वीरछंद देह कर्म के सभी विकारों से विरहित है आत्म स्वरूप । अनंत दर्शन ज्ञान आत्मिक गुण युत चिदानंद चिद्रूप || यही शुद्ध चिद्रूप ज्ञानमय मेरे मन को भाया है ।
इसका ही अब ज्ञान हुआ है ये ही मुझे सुहाया है ॥१५॥ ॐ ह्रीं प्रथम अध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१६) आसावनेकरूपोऽपि स्वभावादेकरूपभाग् ।
अगम्यो मोहिनां शीघ्र गम्यो निर्मोहिनां विदां ॥१६॥ अर्थ- यद्यपि यह चिदानंद स्वरूप आत्मा अनेक स्वरूप है तथापि स्वभाव से यह एक ही स्वरूप है जो मूढ़ हैं मोह की श्रृंखला से जकड़े हुए हैं वे इसका जरा भी पता नहीं लगा सकते; परन्तु जिन्होंने मोह को सर्वथा नष्ट कर दिया है वे इसका बहुत जल्दी पता लगा लेते है।