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४६ तत्त्वज्ञान तरंगिणी प्रथम अध्याय पूजन गुण वस्तुत्व हेतु से होती सभी प्रयोजन भूत क्रिया । नहीं किसी ईश्वर के कारण होती कोई कभी क्रिया ॥
सम्यक् ज्ञान स्वरूप 'शुद्ध चिद्रूप आत्मा तीनो काल ।
कभी अशुद्ध नहीं होता है रहता शुद्ध सदैव विशाल ॥१७॥ ॐ ह्रीं प्रथम अध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१८)
शून्याशून्यस्थूलसूक्ष्मास्तिनास्तिनित्याऽनित्याऽमूर्तिमूर्तित्वमुख्यैः ।
धर्मे युक्तोऽप्यन्य दव्वैर्विमुक्तः चिद्रूपोयं मानसे मे सदास्तु ॥१८॥ अर्थ- यह चैतन्य स्वरूप आत्मा शून्यत्व अशून्यत्व स्थूलत्व सूक्ष्मत्व अस्तित्व नास्तित्व नित्यत्व अनित्यत्व अमूर्तित्व मूर्तित्व आदि अनेक धर्मो से संयुक्त है और पर द्रव्यों के सम्बन्ध से विरक्त है; इसलिये ऐसा चिद्रूप सदा मेरे ह्रदय में विराजमान रहो । १८. ॐ ह्रीं शून्याशून्यादिधर्मसंपन्ननिजचिद्रूपाय नमः ।
विरागस्वरूपोऽहम् । वीरछंद
यह चैतन्य स्वरूप आत्मा है अनेक धर्म से युक्त । पर धर्मो से सदा रहित है ब्रह्म स्वरूपी गुण संयुक्त ॥ शून्य अशून्य स्थूल सूक्ष्म अस्ति नास्ति या पूर्व अपूर्व । पर द्रव्यों से विरत सदा ही निज चिद्रूप रहे उर पूर्व ॥ निज चिद्रूप सुगुण मणि भूषित ज्ञान मात्र करता भगवान । एक मात्र ज्ञायक का स्वर ही भव वन में है महा महान ॥१८॥ ॐ ह्रीं प्रथम अध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१९)
ज्ञेयं दृश्यं न गम्यं मम जगति किमप्यस्ति कार्य न वाच्यं, ध्येयं श्रव्यं न सभ्यं नच विशदमतेः श्रेयमादेयमन्यत् । श्रीमत्सर्वज्ञवाणीजलनिधिमथनात् शुद्धचिद्रूपरत्नं,
यस्माल्लब्धं मयाहो कथमपि विधिनाऽप्राप्तपूर्व प्रियं च ॥१९॥ अर्थ- भगवान सर्वज्ञ की वाणी रूपी समुद्र के मथन करने से मैंने बड़े भाग्य से शुद्ध