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श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान
निज शाश्वत आनंद गंध की सुरभि प्राप्त करले तत्क्षण । भाव मरण अरु द्रव्य मरण क्षय कर ले पा निज आत्म शरण ॥
अर्ध्यावलि
षोडशम अध्याय
शुद्ध चिद्रूप की प्राप्ति के लिए निर्जन स्थान का उपदेश (१) सदबुद्धे : पररंजनाकुलविधित्यागस्य साम्यस्य च, ग्रन्थार्थग्रहणस्य मानसवचोरोधस्य वाधाहते: । रागादित्यजनस्य काव्यजमतेश्चेतोविशुद्धेरपि,
हेतु: स्वोत्थसुखस्य निर्जनमहो ध्यानस्य वा स्थानकम् ||१|| अर्थ- उत्तम ज्ञान पर को रंजायमान करने में आकुलता का त्याग, समता, शास्त्रों के अर्थ का ग्रहणमन और वचन का निरोध राग द्वे, आदि का त्याग काव्यों में बुद्धि मन की निर्मलता, आत्मिक सुख का लाभ और ध्यान निर्जन एकांत स्थान के आश्रय करने से ही होता है ।
१. ॐ ह्रीं काव्यादिमतिरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
निर्बाधचिद्रूपोऽहम् | गीतिका
मोक्ष अभिलाषी पुरुष को चाहिए एकान्त थल । ह्रदय समता निराकुलता शास्त्र ज्ञान परम विमल ॥ मन वचन का हो निरोधी राग द्वेष विभाव तज । आत्म सुख के हेतु विघ्न विनाश कर चिद्रूप भज ॥ शुद्ध निज चिद्रूप का आनंद ही सिर मौर है । तीन लोक त्रिकाल में यह ज्ञान मंदिर और है ॥१॥ ॐ ह्रीं षोडशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(२) पार्श्ववर्त्यगिना नास्ति केनचिन्मे प्रयोजनम् । मित्रेण शत्रुणा मध्यवर्त्तिना वा शिवार्थिनः ॥२॥