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________________ ३२२ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी षोडशम अध्याय पूजन निज चैतन्य वास ज्ञानमय गुण अनंत का जहाँ निवास । निजाराधना साधक हो तो निज ज्ञायक ही शिव सुखराशि || अर्थ- मैं शिवार्थी हूं। अपनी आत्मा को निराकुलतामय सुख का आस्वाद कराना चाहता हैं, इसलिये मुझे शत्रु मित्र और मध्यस्थ किसी भी पास में रहने वाले जीव मित्र शत्रु और मध्यस्थ सब मेरे कल्याण के बाधक है । २. ॐ ह्रीं मित्रशत्वादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । एकोऽहम् । गीतिका मैं शिवार्थी निराकुल सुख का करूंगा आस्वाद । नहीं कोई प्रयोजन है नहीं कोई उर विवाद ॥ शत्रु मित्र सभी हैं कल्याण में बाधक सदा । किन्तु मै मध्यस्थ हूं है साम्य भाव ह्रदय सदा ॥ शुद्ध निज चिद्रूप का आनंद ही सिर मौर है । तीन लोक त्रिकाल में यह ज्ञान मंदिर और है ॥२॥ ॐ ह्रीं षोडशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । इन्दौर्वृद्धौ समुद्रः सरिदमृतमलं वर्द्धते मेघवृष्टौमोहानां कर्मबन्धो गद इव पुरुषस्यामभुक्तेरवश्यं । नानावृत्ताक्षराणामवनिवरतले छन्दसां प्रस्तरश्च, दुःखौघागो विकल्पासववचनकुलं पार्श्ववर्त्यङ्गिनां हि ॥३॥ अर्थ- जिस प्रकार चन्द्रमा के सम्बन्ध से समुद्र, वर्षा से नदी का जल, मोह के संबंध से कर्मबंध, कच्चे भोजन से पुरुषों के रोग और नाना प्रकार के छन्द के अक्षरों से शोभित प्रस्तारों के सम्बन्ध से छन्द उत्पन्न होते हैं। उसी प्रकार पार्श्ववर्ती जीवों के संबंध से नाना प्रकार के दुःख और विकल्पमय वचनों का सामना करना पड़ता है । ३. ॐ ह्रीं विकल्पास्रववचनकुलरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । सुखौघस्वरूपोऽहम् । गीतिका
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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