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३२० श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी षोडशम अध्याय पूजन अहम् भाव को तजकर भजना अपना समता भाव प्रधान।। मात्र परिणामिक स्वभाव से ही तू करना निज पहचान ||
मोह तिमिर की अंधियारी ने निगल लिया उजियाली को। . ज्ञान भानु का उदय अगर हो तो जीतूं अंधियारी को || दर्शन मोह रूप अंधियारे में शिवमार्ग सूझता है ।
जब वैराग्य भाव जगता है तब निज ज्ञान बूझता है। ॐ ह्रीं षोडशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय मोहन्धकार विनाशनाय दीपं नि. ।
सत्तावन प्रकार का आस्रव रुक जाता है संवर से । धूप दशांग धर्म की पाकर जुड़ता है मन अंतर से ॥ शुक्ल ध्यान की अनल धूप में आठों कर्म जलाऊँगा ।
नित्य निरंजन शिवपद पाकर फिर न लौटकर आऊंगा॥ ॐ ह्रीं षोडशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अष्टकर्म विनाशनाय धूपं नि. ।
शुद्ध मोक्ष फल पाने का ही उद्यम प्रभु सर्वोत्तम है । शुद्ध आत्मा का निर्णय ही दुख हरने में सक्षम है || श्रेष्ठ मोक्ष फल मिले न जब तक तब तक ही प्रभु पूजूंगा।
भव पथ पर चलने को स्वामी मैं सदैव ही धूनँगा | ॐ ह्रीं षोडशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय मोक्षफल प्राप्ताय फलं नि. ।
पद अनर्घ्य पाने का ही यदि भाव न उर में जागेगा । तो कैसे मिथ्यात्व भाव मेरे भीतर से भागेगा ॥ निज गुण अर्घ्य बनाऊंगा मैं पद अनर्घ्य पाने को नाथ ।
जब तक है संसार दशा तब तक न तजूंगा तुव पद साथ|| ॐ ह्रीं षोडशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अनर्घ्य पद प्राप्ताय अर्घ्य नि. ।