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३१२ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी पंचदशम अध्याय पूजन भाव कर्म निरोध हो तो द्रव्य कर्म निरोध हो । द्रव्य कर्म निरोध से संसार पूर्ण निरोध हो |
हरिगीता इन्द्रियों के भोग उत्तम अश्व गज अरु पालकी । स्वर्ण भूषण कल्पतरु अरु कामधेनु महान भी ॥ हों असंख्य पदार्थ परकृत कृत्यता होती नहीं । बिन निज चिद्रूप पाए धन्यता होती नहीं ॥ शुद्ध निज चिद्रूप चिन्तन ही जगत में सार है ।
राज्य धन परिवार आदिक सभी तो निस्सार है ॥१४॥ ॐ ह्रीं पंचदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. |
(१५) . परद्रव्यासनाभ्यासं कुर्वन योगी निरन्तरम् ।
कर्माङ्गादिपरद्रव्यं मुक्त्वा क्षिप्र शिवीभवेत् ॥१५॥ अर्थ- निरंतर पर द्रव्यों के त्याग का चिन्तवन करने वाला योगी शीध्र ही कर्म और शरीर आदि पर द्रव्यों से रहित हो जाता है, और परमात्मा बन, मोक्ष सुख का अनुभव करने लगता है। १५. ॐ ह्रीं परद्रव्यासनाभ्यासविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
निजद्रव्यरत्नोऽहम् ।
हरिगीता
निरन्तर पर द्रव्य तजने का करे जो चिन्तवन । शीघ्र कर्म शरीर से होता प्रथक यह धन्य धन ॥ शीघ्र करता मोक्ष सुख का श्रम उसी का आत्मा । शुद्ध निज चिद्रूप जप से जानता परमात्मा ॥ शुद्ध निज चिद्रूप चिन्तन ही जगत में सार है ।
राज्य धन परिवार आदिक सभी तो निस्सार है ॥१५॥ ॐ ह्रीं पंचदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।