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________________ ९.। श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान शुद्ध आत्म स्वरूप मेरा ज्ञानमय आनंद धाम । अतीन्द्रिय आनंद का ही महा स्वादी ध्रुव अनाम ॥ अर्थ- मैं अब तत्वावलंबी हो चुका हूं। अपना और पराया मुझे पूर्ण ज्ञान हो गया हैं, इसलिए शास्त्रों से उत्पन्न हुआ परद्रव्यों का ज्ञान भी अब मेरे लिये हेय त्यागने योग्य है। तब उन पर द्रव्यों के ग्रहण का तो अवश्य बही त्याग होता चाहिए । १३. ॐ ह्रीं परद्रव्यज्ञानहेयरूपविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निजधुवधामस्वरूपोऽहम् । हरिगीता हुआ अपने पराये का ज्ञान मुझको पूर्ण अब । हुआ हूँ तत्त्वालंबी भान पाया आज सब || हेय तजने योग्य है यह ज्ञान मुझको हो गया । उपादेय महान निज चिद्रूप मय मन हो गया ॥ शुद्ध निज चिद्रूप चिन्तन ही जगत में सार है । राज्य धन परिवार आदिक सभी तो निस्सार है ॥१३॥ ॐ ह्रीं पंचदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । (१४) स्वर्णै रत्नैः कलत्रै सुतगृहवसनै भूषणैराज्यखार्थेगहस्त्रवैश्च पद्नैरथवरशिविकामित्रमिष्टान्नपानैः । चिंतारनै र्निधानै सुरतरुनिवहैः कामधेन्वा हि शुद्धचिद्रूपाप्तिं विनांगी न भवति कृतकृत्य कदा क्वापि कोपि ॥१४॥ अर्थ- कोई भी प्राणी क्यों न हो, जब तक उसे शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति नहीं होती तब तक चाहे उसके पास सुवर्ण रत्न स्त्री पुत्र घर वस्त्र भूषण राज्य इंद्रियों के उत्तमोत्तम भोग गाय हाथी अश्व पदाति रथ पालकी, मित्र महामिष्ट: अन्नपान, चिन्तामणि रत्न, खजाने कल्पवृक्ष और कामधेनु आदि अगणित पदार्थ क्यों न मौजूद हों, उनसे वह कहीं किसी काल में भी कृतकृत्य नहीं हो सकता । १४. ॐ ह्रीं स्वर्णरत्नकलत्रादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः | ज्ञानकामधेनुस्वरूपोऽहम् ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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