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३१० श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी पंचदशम अध्याय पूजन आनंद का रस कंद हूँ मैं शान्ति का सागर महान । चैतन्य रस का पिंड हूँ मैं परम शुद्ध प्रकाशमान ||
पर द्रव्य का तो नाश होता है अवश्य विचार लो । रोक सकता नहीं कोई पूर्व भूल सुधार लो | द्रव्य निज अरु द्रव्य पर का रूप जानो अव यथार्थ । नाश होने पर न हो उर शोक निर्णय करो सार्थ ॥ शुद्ध निज चिद्रूप चिन्तन ही जगत में सार है ।
राज्य धन परिवार आदिक सभी तो निस्सार है |॥११॥ ॐ ह्रीं पंचदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१२) त्यक्त्वा मां चिदचित्संगा यास्यत्येव न संशयः ।
तानहं वा च यास्यामि तत्प्रीतिरिति मे वृथा ॥१२॥ अर्थ- ये चेतन अचेतन दोनों प्रकार के परिग्रह अवश्य मुझे छोड़ देंगे और मैं भी सदा काल इसका संग नहीं दे सकता। मुझे भी ये अवश्य छोड़ देने पड़ेंगे इसलिये मेरा इनके साथ प्रेम करना व्यर्थ है। १२. ॐ ह्रीं चिदचित्परिग्रहविषयकप्रीतिरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः |
निष्परिग्रहबोधस्वरूपोऽहम् ।। चेतन अचेतन परिग्रह ये छोड़ ही देंगे मुझे । छोड़ देना पड़ेगा इन सभी को इक दिन मुझे ॥ अतः इनसे प्रेम करना मोह का ही जाल है । राग की यह जान ले तू भूल है जंजाल है | शुद्ध निज चिद्रूप चिन्तन ही जगत में सार है ।
राज्य धन परिवार आदिक सभी तो निस्सार है ॥१२॥ ॐ ह्रीं पंचदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१३) पुस्तकै यत्परिज्ञानं परद्रव्यस्य मे भवेत् । तधेयं किं न हेयानि तानि तत्त्वावलंबिनः ॥१३॥